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________________ २८० जैन-दर्शन मृषावादी है । जो यह जानता है कि ये जीव हैं और ये अजीव, ये त्रस और ये स्थावर, उसका प्रत्याख्यान सुप्रत्याख्यान है। वह सत्यवादी है। महावीर की दृष्टि का पता लगाने के लिए ये संवाद काफी हैं । बुद्ध ने आराधना को लेकर जिस प्रकार विभाजनपूर्वक उत्तर दिया, महावीर ने भी ठीक उसी शैली से अपने शिष्यों की शंका का समाधान किया । जो प्रश्न पूछा गया उसका विश्लेषण किया गया कि इस प्रश्न का क्या अर्थ है। किस दृष्टि से इसका क्या उत्तर दिया जा सकता है। जितनी दृष्टियाँ सामने आई उन दृष्टियों से प्रश्न का समाधान किया गया। एक दृष्टि से ऐसा हो भी सकता है, दूसरी दृष्टि से सोचने पर ऐसा नहीं भी हो सकता। हो सकता है वह कैसे. और नहीं हो सकता है वह कैसे ? प्रश्नोत्तर की यह शैली विचारों को सुलझाने वाली शैली है। इस शैली से किसी वस्तु के अनेक पहलुओं का ठीक-ठीक पता लग जाता है । उसका विश्लेषण एकांगी, एकांशी या एकान्त नहीं होने पाता । बुद्ध ने इस दृष्टि को विभज्यवाद का नाम दिया। इस से विपरीत दृष्टि को एकांशवाद कहा । महावीर ने इसी दृष्टि को अनेकान्तवाद और स्याद्वाद कहा। इससे विपरीत दृष्टि को एकान्तवाद का नाम दिया । बुद्ध और बुद्ध के अनुयायियों ने इस दृष्टि का पूरा पीछा नहीं किया। महावीर और उनके अनुयायियों ने इस दृष्टि को अपनी विचार-सम्पत्ति समझकर उसकी पूरी रक्षा की, तथा दिन प्रतिदिन उसे खूब बढ़ाया। एकान्तवाद और अनेकान्तवादः एकान्तवाद किसी एक दृष्टि का ही समर्थन करता है। यह हमेशा दो विरोधी रूपों में दिखाई देता है। कभी सामान्य और विशेष के रूप में मिलता है तो कभी सत् और असत् के रूप में । कभी निर्वचनीय और अनिर्वचनीय के रूप में दिखाई देता है तो कभी हेतु और अहेतु के रूप में । जो लोग सामान्य का ही समर्थन १--भगवती सूत्र, ७।२।१७० ।
SR No.010321
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Mehta
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1959
Total Pages405
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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