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________________ ज्ञानवाद और प्रमाणशास्त्र २३६ का प्रयोग किया है। सर्व-प्रथम मोह का क्षय होता है। तदनन्तर अन्तमुहर्त के बाद ही ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तराय-इन तीनों कर्मों का क्षय होता है । तदनन्तर केवलज्ञान पैदा होता है और उसके साथ-ही-साथ केवलदर्शन आदि तीन अन्य शक्तियाँ भी उत्पन्न होती हैं । केवलज्ञान का विषय सर्व द्रव्य और सर्व पर्याय है। कोई भी वस्तु ऐसी नहीं है, जिसको केवलज्ञानी न जानता हो। कोई भी पर्याय ऐसा नहीं है, जो केवलज्ञान का विषय न हो। जितने भी द्रव्य हैं और उनके वर्तमान, भूत और भविष्य के जितने भी पर्याय हैं, सब केवलज्ञान के विषय हैं । केवलज्ञान के समय मति आदि चारों ज्ञान नहीं होते, इसका निर्देश पहले कर चुके हैं। आत्मा की ज्ञानशक्ति का पूर्ण विकास या आविर्भाव केवलज्ञान है । इस ज्ञान के होते ही जितने छोटे मोटे क्षायोपशमिक ज्ञान हैं, सब समाप्त हो जाते हैं। मति आदि क्षायोपशमिक ज्ञान प्रात्मा के अपूर्ण विकास के द्योतक हैं । जब आत्मा का पूर्ण विकास हो जाता है तब इनकी स्वतः समाप्ति हो जाती है। पूर्णता के साथ अपूर्णता नहीं टिक सकती। दूसरे शब्दों में पूर्णता के अभाव का नाम ही अपूर्णता है। पूर्णता का सद्भाव अपूर्णता के असद्भाव का द्योतक है । केवलज्ञान सकल-प्रत्यक्ष है-सम्पूर्ण है, अतः उसके साथ मति आदि अपूर्णज्ञान नहीं रह सकते । जैन दर्शन की केवलज्ञान-विषयक मान्यता व्यक्ति के ज्ञान के विकास का अन्तिम सोपान है । दर्शन और ज्ञान: आत्मा का स्वरूप बताते समय हम कह चुके हैं कि उपयोग जीव का लक्षण है। यह उपयोग दो प्रकार का होता है-अनाकार और साकार। अनाकार उपयोग को दर्शन कहते हैं और साकार उपयोग को ज्ञान । अनाकार का अर्थ है--निर्विकल्पक और साकार का अर्थ है-सविकल्पक । जो उपयोग सामान्यभाव का ग्रहण करता है वह निर्विकल्पक है और १- 'सर्वद्रव्यपर्यायेषु केवलस्य'। -तत्त्वार्थसूत्र १।३० २ -तत्त्वार्थसूत्रभाष्य ·६
SR No.010321
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Mehta
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1959
Total Pages405
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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