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________________ २३८ जैन-दर्शन है । अतः उससे विशुद्धतर है । यह विशुद्धि विषय की न्यूनाधिकता पर नहीं, किन्तु विषय की सूक्ष्मता पर अवलम्बित है। अधिक मात्रा में विषय का ज्ञान होना उतना महत्वपूर्ण नहीं जितना विषय की सूक्ष्मताओं का ज्ञान होना । मनःपर्ययज्ञान से रूपी द्रव्य का सूक्ष्म अंश जाना जाता है । अवधिज्ञान उतनी सूक्ष्मता तक नहीं पहुँच सकता। अवधिज्ञान का क्षेत्र अंगुल के असंख्यातवें भाग से लेकर सारा लोक है मनःपर्ययज्ञान का क्षेत्र मनुष्य लोक (मानुषोत्तर पर्वत पर्यन्त) है। अवधिज्ञान का स्वामी देव, नरक, मनुष्य और तिर्यश्च किसी भी गति का जीव हो सकता है। मनःपर्ययज्ञान का स्वामी केवल चारित्रवान् मनुष्य ही हो सकता है। अवधिज्ञान का विषय सभी रूपीद्रव्य हैं (सव पर्याय नहीं), किन्तु मन:पर्ययज्ञान का विषय केवल मन है, जो कि रूपीद्रव्य का अनन्तवाँ भाग है। उपयुक्त विवेचन को देखने से मालूम पड़ता है कि अवधिज्ञान और मनःपर्ययज्ञान में कोई ऐसा अन्तर नहीं जिसके आधार पर दोनों ज्ञान स्वतन्त्र सिद्ध हो सकें । दोनों में एक ही ज्ञान की दो भूमिकाओं से अधिक अन्तर नहीं है । एक ज्ञान कम विशुद्ध है, दूसरा ज्ञान अधिक विशुद्ध है। दोनों के विषयों में भी समानता ही है । क्षेत्र और स्वामी की दृष्टि से भी सीमा की न्यूनाधिकता है। कोई ऐसा मौलिक अन्तर नहीं दीखता जिसके कारण दोनों को स्वतन्त्र ज्ञान कहा जा सके । दोनों ज्ञान प्रांशिक आत्म-प्रत्यक्ष की कोटि में हैं। मति और श्रु तज्ञान के विषय में भी यही बात कही जा सकती है। केवलज्ञान : __ यह ज्ञान विशुद्धतम है। मोहनीय, ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तराय के क्षय से कैवल्य प्रकट होता है। मति, श्रुत, अवधि और मनःपर्यय क्षायोपशमिक ज्ञान हैं । केवलज्ञान क्षायिक है। केवलज्ञान के चार प्रतिबंधक कर्म हैं-मोहनीय, ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तराय। यद्यपि इन चारों कर्मों के क्षय से चार भिन्न-भिन्न शक्तियाँ उत्पन्न होती हैं, किन्तु केवलज्ञान उन सब में मुख्य है. इसलिए हमने उपयुक्त वाक्य ...... १-तत्त्वार्थसूत्र १०१
SR No.010321
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Mehta
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1959
Total Pages405
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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