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________________ २४० जैन-दर्शन जो विशेष का ग्रहण करता है वह सविकल्पक है । सत्ता सामान्य की सर्वोत्कृष्ट भूमिका है। सत्ता में भेद होते ही विशेष प्रारम्भ हो जाता है। जैनदर्शन में दर्शन और ज्ञान की मान्यता बहुत प्राचीन है। कर्मों के आठ भेदों में पहले के दो भेद ज्ञान और दर्शन से सम्बन्धित हैं। कर्मविषयक मान्यता जितनी प्राचीन है, ज्ञान और दर्शन की मान्यता भी उतनी ही प्राचीन है । ज्ञान को आच्छादित करने वाले कर्म का नाम ज्ञानावरण कर्म है। दर्शन की शक्ति को प्रावृत्त करने वाले कर्म को दर्शनावरण कर्म कहते हैं। इन दोनों प्रकार के प्रावरगों के क्षयोपशम से ज्ञान और दर्शन का आविर्भाव होता है । आगमों में ज्ञान के लिए 'जागइ' (जानाति) अर्थात् जानता है और दर्शन के लिए 'पासई' (पश्यति) अर्थात् देखता है का प्रयोग हुअा है। ___ साकार और अनाकार के स्थान पर एक मान्यता यह भी देखने में आती है कि बहिमुख उपयोग ज्ञान है और अन्तमुख उपयोग दर्शन है। आचार्य वीरसेन लिखते हैं कि सामान्य-विशेषात्मक वाह यार्थ का ग्रहण ज्ञान है और तदात्मक आत्मा का ग्रहण दर्शन है। तत्त्व सामान्य-विशेषात्मक है। चाहे आत्मा हो, चाहे आत्मा से इतर पदार्थ हों-सब इसी लक्षण से युक्त हैं । दर्शन और ज्ञान का भेद यही है कि दर्शन सामान्यविशेषात्मक आत्मा का उपयोग है-स्वरूप दर्शन है, जब कि ज्ञान आत्मा से इतर प्रमेय का ग्रहण करता है । इसके अतिरिक्त दर्शन और ज्ञान में कोई अन्तर नहीं है। जो लोग यह मानते हैं कि सामान्य का ग्रहण दर्शन है और विशेष का ग्रहण ज्ञान है वे इस मत के अनुसार दर्शन और ज्ञान का स्वरूप नहीं जानते। सामान्य और विशेष दोनों पदार्थ के धर्म हैं । एक के अभाव में दूसरा नहीं रह सकता । दर्शन और ज्ञानं, इन दोनों धर्मों का ग्रहण करते हैं। केवल सामान्य या केवल विशेष का । ग्रहण नहीं हो सकता । सामान्य-व्यतिरिक्त विशेष का ग्रहण करने वाला १-'सामान्यविशेषात्मकबाह्यार्थग्रहणं ज्ञानम्, तदात्मकस्वरूपग्रहणं दर्शनमिति सिद्धम्। -षट्खण्डागम पर धवला टीका १११।४
SR No.010321
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Mehta
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1959
Total Pages405
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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