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________________ जैन-दर्शन श्रीर उनका प्राधार में भी सहायता दी थी - श्रवतारिका बनाई । यह ग्रन्थ रत्नाकरावतारिका नाम से प्रसिद्ध है । ग्रन्थ की भाषा विषयक ग्राम्बरेता ने इसे स्वाहादरत्नाकर से भी कठिन बना दिया। इतना होते हुए भी इस ग्रन्थ का इतना प्रभाव पड़ा कि स्याहादरत्नाकर का पठन-पाठन प्रायः वन्दसा हो गया। सभी लोग इसी से अपना काम निकालने लगे । इसका परिगाम यह हुआ कि ग्राम स्वाहादरत्नाकर जैसे महत्वपूर्ण ग्रन्य की एक भी सम्पूर्ण प्रति उपलब्ध नहीं है । श्राचार्य हेमचन्द्र के शिष्य रामचन्द्र और गुणचन्द्र ने मिलकर द्रव्यालंकार नामक दार्शनिक कृति का निर्माण किया । चन्द्रसेन ने वि० सं० १२०७ में उत्पादादिमिद्धि की रचना की । इस ग्रन्थ में उत्पाद, व्यय और श्रीव्य रूप वस्तु का समर्थन किया गया है । वस्तु का यह लक्षण जैनदर्शन की विशिष्ट परम्परा है। मुच्चय पर वि० सं० १६८० में सोमतिलक ने एक टीका लिगी। दूसरी टीका गुणरत्न ने लिखी जो अधिक उपादेय बनी। यह दीका पहवीं पताब्दी में लिखी गई । ११३ इसी पताब्दी में मेरुतुरंग ने पदर्शननिय नामक ग्रन्थ लिखा | राजपदर्शनसमुच्चय, स्वाहादकालिका, रत्नाकरावतारिकापंजिका यादि ग्रन्थ लिखे। इसके अतिरिक्त उन्होंने प्रशस्तपाद भाष्य की ठीकी पर पजका लिखो । ज्ञानचन्द्र ने रत्नाकरावतारिकापंजिष्ण लिया। भट्टारक धर्मभूषण ने न्यायदीपिका लिखी, जो जैन व्यापणास्त्र का प्रारम्भिक ग्रन्थ है। विजय ने गोली मताब्दी में वादविलयप्रकरण और हेतुमन नामक दो लिये। करन ने की स्थापना एवं और जैन होने वाला यह युग प्रमाणास्त्र केन में निरन्तर बढ़ता रहा। उन युग में पर एक से एक श्रेष्ठ धन्य बने । दार्गभूमिका पर जैन परम्पराको प्रतिष्ठित करना एवं उनके गौरव को दाना, पाइन युग की विशेष देन है। यह देन जैनदर्शन के स्वावित्व मेगी एवं महत्वपूर्ण है। C
SR No.010321
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Mehta
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1959
Total Pages405
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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