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________________ ११४ जैन-दर्शन नव्य न्याययुग: तत्त्वचिन्तामरिण नामक न्याय के ग्रन्थ से न्यायशास्त्र का एक नया अध्याय प्रारम्भ होता है। इसका श्रेय विक्रम की तेरहवीं शताब्दी में मिथिला में पैदा होने वाले गंगेश नामक प्रतिभा सम्पन्न नैयायिक को है। तत्त्वचिन्तामणि नवीन परिभाषा और नूतन शैली में लिखा गया एक अद्भुत ग्रन्थ है। इसका विषय न्यायसम्मत प्रत्यक्षादि चार प्रमाण है। इन चारों प्रमारणों की सिद्धि के लिए गंगेश ने जिस परिभाषा, तर्क और शैली का प्रयोग किया वह न्यायशास्त्र के क्षेत्र में एक बहुत बड़ी क्रान्ति थी। न्याय के शुष्क और नीरस विषय में एक नये रस का संचार कर देना और उसे आकर्षण की वस्तु बना देना, सामान्य बात नहीं थी। गंगेश ने जिस नूतन और सरस शैली को जन्म दिया वह शैली उत्तरोत्तर बढ़ती ही गई। चिन्तामणि के टीकाकारों ने इस नवीन न्यायग्रन्थ पर उतनी ही महत्वपूर्ण टीकाएँ लिखीं कि इस ग्रन्थ के साथ एक नये युग की स्थापना हो गई। न्यायशास्त्र प्राचीन और नवीन न्याय में विभक्त हो गया। यहीं से नवीन न्याय का प्रारम्भ होता है । इस युग का इतना अधिक प्रभाव पड़ा कि सभी दार्शनिक अपने-अपने दर्शन को नवीन न्याय की भूमिका पर परिष्कृत करने लगे । इस शैली का अनुसरण करके जितने भी ग्रन्थ बने उनका दर्शन के इतिहास में बहुत महत्व है। प्रत्येक दर्शन के लिए यह आवश्यक हो गया कि यदि वह जीवित रहना चाहता है तो नवीन न्याय की शैली में अपने पक्ष की स्थापना करे । इतना होते हुए भी जैनदर्शन के प्राचार्यों का ध्यान इस ओर बहुत शीघ्र नहीं गया। सत्रहवीं शताब्दी के अन्त तक जैनदर्शन प्राचीन परम्परा और शैली के चक्कर में ही पड़ा रहा । जहाँ अन्य दर्शन नवीन सजधज के साथ रंगमंच पर आ चुके थे, जैनदर्शन पर्दे के पीछे ही अंगड़ाइयाँ ले रहा था । यशोविजय ने अठारहवीं शताब्दी के प्रारम्भ में जैनदर्शन को नया प्रकाश दिया। इसी प्रकाश के साथ जैनदर्शन के इतिहास में एक नये युग का प्रारम्भ होता है । __वि० सं० १६९६ में अहमदावाद के जैनसंघ ने प्राचार्य नयविजय और यशोविजय को काशी भेजा। प्राचार्य नयविजय यशोविजय के गुरु
SR No.010321
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Mehta
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1959
Total Pages405
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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