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________________ ८४ जैन-दर्शन रचनाएँ प्रमाणभूत मानी जाती हैं। दूसरी. बात यह है कि चतुदेशपूर्वधर (पूर्ण श्रुतज्ञानी) और दशपूर्वधर वे ही साधक हो सकते हैं, जो नियमतः सम्यग्दृष्टि होते हैं । अतः उनके ग्रन्थ मूल आगम से विरुद्ध नहीं हो सकते । इस प्रकार गणधरकृत एवं स्थविरकृत दोनों प्रकार के आगमों का प्रामाण्य स्वीकृत किया गया है। आज आगमों के जो संस्करण उपलब्ध हैं, वे अपने प्रस्तुत रूप में देवर्धिगणि क्षमा-श्रमण के समय के हैं। कालक्रम से स्मृति का लोप होते हुए देखकर महावीर के निर्वाण से लगभग ६६० वर्ष बाद पाटलिपुत्र में लम्बे काल के दुर्भिक्ष के बाद जैन-श्रमणसंघ एकत्रित हुआ । एकत्रित हुए श्रमणों ने परस्पर पूछ कर ११ अंग व्यवस्थित किए। बारहवें अंग दृष्टिवाद का कुछ कारणों से संग्रह न हो सका । यह प्रथम वाचना है । दूसरी वाचना मथुरा में हुई । बारह वर्ष के दुष्काल के कारण ग्रहण-गुणन-अनुप्रेक्षा के अभाव में सूत्र नष्ट होने लगे । आर्य स्कंदिल के नेतृत्व में मथुरा में साधुसंघ एकत्रित हुया । जिसको जो याद रह सका उसके आधार पर श्रुत पुनः व्यवस्थित कर लिया गया। इस वाचना का काल सम्भवतः वोर निर्वाण संवत् ८२७ से ८४० तक के वीच का है। ___ लगभग इसी समय वल्लभी में भी नागार्जुन सूरि ने श्रमणसंघ को एकत्रित करके आगमों को व्यवस्थित करने का प्रयत्न किया था। ___ लगभग डेढ़ सौ वर्ष के उपरान्त पुन: वल्लभीनगर में देवर्धिगरिग क्षमाश्रमरण की अध्यक्षता में श्रमणसंघ एकत्रित या । इस समय पूर्वोक्त दोनों वाचनायों के समय एकत्रित किए गए सिद्धान्तों के उपरान्त जो जो ग्रन्थ-प्रकरण मौजूद थे उन सबको भी लिखा कर सुरक्षित करने का निश्चय किया गया तथा दोनों वाचनाओं के सिद्धान्तों का परस्पर समन्वय किया गया। वर्तमान में जो आगमग्रन्थ उपलब्ध हैं, उनका अन्तिम स्वरूप इसी समय स्थिर हुया था।
SR No.010321
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Mehta
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1959
Total Pages405
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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