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________________ जैन-दर्शन और उसका आधार द्वाद और नयवाद हैं। प्रागमिक साहित्य से लेकर आज तक का साहित्य स्याद्वाद और नयवाद के मौलिक सिद्धान्तों से भरा हुआ है। जैन विद्वानों का यह दृष्टिकोण विश्व की दार्शनिक परम्परा में अद्वितीय है। जैनदर्शन का प्राधार : जैन दर्शन पर ग्राज जो साहित्य उपलब्ध है, उसे मोटे तौर पर पाँच भागों में बाँटा जा सकता है। यह साहित्य महावीर से लगाकर आज तक के विकास को हमारे सामने उपस्थित करता है। विकास का क्रम इस प्रकार है :--(१) अागमयुग, (२) अनेकान्तस्थापनयुग, (३) प्रमाणशास्त्र-व्यवस्थायुग (४) नवीनन्याय युग, (५) आधुनिक युग-सम्पादन एवं अनुसंधान ।। आगमयुग : इस युग की काल-मर्यादा महावीर के निर्वाण अर्थात् वि० पू० ४७० से प्रारम्भ होकर प्रायः एक हजार वर्ष तक जाती है। महावीर के विचारों का सार उनके गणधरों ने शब्दबद्ध किया। स्वयं महावीर ने कुछ नहीं लिखा। जैनागम तीर्थंकरप्रणीत कहे जाते हैं। इसका तात्पर्य यही है कि अर्थरूप से तीर्थकर प्रणेता है और ग्रन्थरूप से गणधर । आगमों का प्रामाण्य गणधर-कृत होने से नहीं, अपितु तीर्थङ्कर को वीतरागता एवं सर्वज्ञत्व के कारण है। गणधरों के अतिरिक्त अन्य स्थविर भी आगम-रचना करते हैं। स्थविर-कत आगम 'अंगवाह्य' कहलाते हैं और गणधरकृत आगम 'अंगप्रविष्ट' कहलाते हैं। तीर्थङ्कर के मुख्य शिष्य गणधर कहलाते हैं। अन्य प्रकार के श्रमण, जो या तो सम्पूर्ण श्रुतज्ञानी होते हैं या दशपूर्व-धर, वे स्थविर कहलाते हैं । गणधर और स्थविर दोनों के ग्रन्थों का अाधार तीर्थङ्कर-प्रणोत तत्त्वज्ञान ही होता है। इसीलिए उनकी १-जैन दार्शनिक साहित्य का सिंहावलोकन, पृ० १ . .., २-नन्दीसूत्र, ४० :-~-विशेषावश्यक भाष्य, गा० ५५०
SR No.010321
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Mehta
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1959
Total Pages405
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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