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________________ ८२ जैन-दर्शन दृष्टि का अन्तिम स्वरूप है, समभाव का अन्तिम विकास है, समानता का अन्तिम दावा हैं। विचार में साम्पदृष्टि की भावना पर जो जोर दिया गया है उसी में से अनेकान्त दृष्टि का जन्म हुआ है । अनेकान्त दृष्टि तत्त्व को चारों ओर से देखती है । तत्व का स्वभाव ही ऐसा है कि वह अनेक प्रकार से जाना जा सकता है । वस्तु के अनेक धर्म होते हैं। किसी समय किसी की दृष्टि किसी एक धर्म पर भार देतो है ता किसी समय दूसरे की दृष्टि किसी दूसरे धर्म पर जोर देती है । तत्व को दृष्टि से उस वस्तु में सारे धर्म हैं। इसीलिए वस्तु को अनेक धर्मात्मक कहा गया है। अपेक्षा-भेद से दष्टिभेद का प्रतिपादन करना और उस दृष्टिभेद को वस्तु धर्म का एक अंश समझना, यही अनेकान्तवाद है। अपेक्षाभेद को दृष्टि में रखते हुए अनन्त-धर्मात्मक तत्त्व का प्रतिपादन 'स्याद्' शब्द द्वारा हो सकता है, अत: अनेकान्तवाद का नाम स्याद्वाद भी है । स्याद्वाद का यह सिद्धान्त जैनदर्शन के अतिरिक्त अन्य दर्शनों में भी मिलता है। मोमांसा, सांख्य और न्यायदर्शन में यत्र-तत्र अनेकान्तवाद विखरा हुग्रा मिलता है । बुद्ध का विभज्यवाद स्याद्वाद का हो निषेधात्मक रूपान्तर है। इतना होते हुए भो किसी दर्शन ने स्याद्वाद को सिद्धान्तरूप से स्वोकत नहीं किया । अपने पक्ष को मिद्ध के लिए उन्हें यत्रतत्र स्याद्वाद का प्राश्रय अवश्य लेना पड़ा; परन्तु उन्होंने जानबूझ कर उसे अपनाया हो ऐसी वान नहीं है। जैन परम्परा ने जैसे अहिंसा पर अधिक भार दिया है वैसे हा अनेकान्तवाद पर भी अत्यधिक भार दिया है। दूसरे शब्दों में अनेकान्तवाद जैन-दर्शन का प्राण है। जैन-परम्परा का प्रत्येक प्राचार और विचार अनेकान्तदृष्टि से प्रभावित है। जैन-विचारधारा का कोई ऐसा क्षेत्र नहीं, जिस पर अनेकान्त-दप्टि को छार न हो। जैन-दार्शनिकों ने इस विषय पर एक नहीं, अनेकों ग्रन्थ लिखे हैं। अनेकान्त-दृष्टि के आधार पर ही नयवाद का विकास हुग्रा है। स्याहाद और नयवाद जैन परम्परा की अमूल्य सम्पत्ति है। जैन दार्शनिक साहित्य के मुख्य प्राधार अनेकान्त दृष्टि की भूमि में उत्पन्न होने वाले एवं बढ़ने वाले स्या
SR No.010321
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Mehta
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1959
Total Pages405
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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