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________________ ४६ उत्तर नहीं मानना चाहता, इसका हमें आश्चर्य हैं । शायद वह सभी प्रश्नों के समाधानों को नयविभाग के विना गोलमाल रखना चाहता था, तभी तो वह वारवार " यह हमारे प्रश्न का उत्तर नहीं है" - यह लिखकर समाज को भ्रम में रखना चाहता है । यह समीक्षक का विडम्वना भरा माहोल पैदा करना है । और फिर उल्टा हम पर धारोप करते हुए यह लिखना कि "विडम्बना यह है कि इस दौर में उसने पूर्वपक्ष पर अनेक कल्पित श्रारोप लगाये हैं और उनके ग्राधार पर पूर्वपक्ष की यद्वातद्वा लोचना की है ।" (स. पृ ३३) सो यह उसकी कोरी कल्पना मात्र है। न तो हमने उसपर कोई श्रारोप लगाया है और न ही हमने उसकी आलोचना की है। कोई और तो और उसका यह कहना है किं पर की सहायता के विना कार्य नहीं होता और दूसरी ओर उसका श्रागम से झूठा समर्थन कराने का प्रयत्न करना । फिर भी यह लिखा जाय कि यह उपचार से ही कहा जा सकता है तो इस पर यह लिखना कि यह हमारे प्रश्न का उत्तर नहीं है तो इसे विडम्बना नहीं तो और क्या कहा जाय ? शंकाकार द्वारा किये गये प्रसमीचीन अर्थ का निराकरण (१) 'द्वयकृतो लोके विकारो भवेत्' रूप से स्वीकृत उक्त वचन के अनुसार यद्यपि समीक्षक दो वस्तुएं मिलकर एक विकार परिणति रूप होती है, इसे तो नही मानते, इसे हम स्वीकार करते, पर वह यह तो मानता ही है कि "वस्तु की विकारी परिणति दूसरी वस्तु का भूतार्थ से सहयोग प्राप्त होने पर ही होती है, उसका सहयोग प्राप्त हुए विना अपने श्राप नहीं हो जाती ।" तो उसकी ऐसी मान्यता ही मुख्य रूप से विवाद का विषय बनी हुई है । (२) पहले समीक्षक 'पुरुषार्थसिद्ध युपाय' की इस गाथा को उद्धत करके उसका अर्थ भी लिख आया है । यथा - जीवकृत परिणामं निमित्तमात्रं प्रपद्य पुनरन्ये । स्वयमेव परिरणमन्तेऽत्र पुद्गलः कर्मभावेन ।। १३ ॥ उसके द्वारा किया हुआ अर्थ इस प्रकार है : जीव द्वारा कृत परिणाम को निमित्तरूप से प्राप्त कर अन्य पुद्गल वहां स्वयं (अपनीयोग्यता के अनुसार) कर्मरूप से परिणत होते हैं । - हम इसका अर्थ इस प्रकार करते हैं - जीवकृत परिणाम को निमित्त मात्र प्राप्त कर यहां अन्य पुद्गल कर्मरूप से स्वयं ही ( अन्य की सहायता के विना ) परिणमन करते हैं । यहां विवाद के मुद्दे दो हैं - प्रथम "स्वयमेव" पद का अर्थ और दूसरा " परिणमन्ते" क्रिया का अर्थ | समीक्षक “स्वयमेव" का अर्थ स्वयं ही (अपने आप ही ) नहीं करना चाहता और इसलिये उसने यहां इसका अर्थ किया है "अपनी योग्यतानुसार, दूसरे "परिणमन्ते" क्रिया का अर्थ " परिणमते हैं" नहीं करना चाहता, इसलिये उसने इसका अर्थ किया है। "परिणत होते हैं ।" - इस प्रकार ये दो अर्थ हैं । अव सर्वप्रथम किसका किया हुआ अर्थ समीचीन है - इस बात का यहाँ विचार करना है । उसमें भी सर्वप्रथम "स्वयमेव" पट का जो प्रर्थ समीक्षक ने किया है. वह
SR No.010316
Book TitleJain Tattva Samiksha ka Samadhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages253
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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