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________________ में भूल से वही अर्थ कर दिया था, जबकि यह प्रयोग कर्मकारक में है, अतः वहां उस प्रकार का संशोधन कर लेना हमें इष्ट है। निमित्त अकिंचित्कर क्यों है, इसका अर्थ :- पृ. ३२ (स.) में समीक्षक ने जो यह लिखा है 'परन्तु इससे निमित्त को अकिंचित्कर नहीं सिद्ध किया जा सकता है सो उसका ऐसा लिखना तभी उपयोगी माना जा सकता था, जब वह निमित्त के सहयोग को पूरी तरह अभूतार्थ स्वीकार कर लेता । हमने यदि कहीं उसे अकिंचित्कर लिखा भी है तो यहां 'निमित्त उपादान मिलकर उपादान के कार्य को करने की क्रिया करता है' इस अर्थ में अकिंचित्कर लिखा है जो ठीक है। ४. शंका १. दौर ३. समीक्षा का समाधान तृतीय दौर में भी हमने पूर्वपक्ष की शंका का जो समाधान किया था, उसे वह समीक्षक की भूमिका स्वीकार करके भी उस पर टिककर नहीं रह सकता, यह हमें ही नहीं, सभी को खेद जनक लगेगा। साथ ही जो उसने हम पर कल्पित लांछन लगाने का दुष्प्रयत्न किया है, वह और भी खेदजनक है। उसने अपनी स्थिति को स्पष्ट करते हुए नयविभाग का विचार किये बिना जो यह लिखा है कि 'वस्तु की विकारी परिणति दूसरी वस्तु का सहयोग प्राप्त होने पर ही होती है, उसका सहयोग प्राप्त हुए बिना अपने आप नहीं हो जाती' सो उसका एकान्त से ऐसा लिखना और मानना यही विवाद की स्थिति है। कदाचित् उपचार से ऐसा कहा जाय तो भले ही कहा जाय, परन्तु बिना नयविभाग के तत्त्वविमर्श के समय ऐसा लिखना और मानना जैनदर्शन को मटियामेट करने के सिवाय और कुछ भी नहीं है, क्योंकि कार्यकाल में एक वस्तु दूसरी वस्तु को भूतार्थ रूप से सहयोग देती है - ऐसी मान्यता ही जब अज्ञान का फल है, ऐसी हालत में उसे जैन दर्शन बतलाना जैन दर्शन को मटियामेट करने के सिवाय और क्या हो सकता है ? · पूर्व पक्ष का मूल प्रश्न इस रूप में था "द्रव्यकर्म के उदय से संसारी आत्मा का विकारभाव और चतुर्गति भ्रमण होता है या नहीं?" उत्तरपक्ष की ओर से मूल प्रश्न का हमारे द्वारा दिया गया उत्तर समीचीन था । हमने तीसरे दौर में इसका उत्तर दूसरे दौर के आधार पर इस प्रकार दिया था "संसारी जीव के विकारभाव और चतुर्गतिभ्रमण में कर्मोदय व्यवहार से निमित्तमात्र है, मुख्य कर्ता नहीं ।" (त. च. पृष्ठ ३६) यह तो विचारक ही देखेंगे कि हमारे द्वारा नयविभाग से दिया गया यह उत्तर समीचीन होते हुए भी समीक्षक की भूमिका स्वीकार करके भी वह यह लिखने से नहीं चूकता कि "यह हमारे प्रश्न का उत्तर नहीं है।" यद्यपि उक्त प्रश्न कौन नय से किया गया है, इसका उल्लेख उक्त प्रश्न में नहीं किया गया था, फिर भी यह प्रश्न कौन नय के अन्तर्गत पाता है, इसे विस्मृत या उपेक्षित कर उत्तर देना भी तो सम्यक् उत्तर नहीं देता, सिवाय इसके कि वह वस्तुस्थिति को ध्यान में रखकर नयविभाग से इस प्रश्न का समाधान करता है, हमने किया भी वही । ऐसी अवस्था में समीक्षक इसे अपने प्रश्न का
SR No.010316
Book TitleJain Tattva Samiksha ka Samadhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages253
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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