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________________ ठीक है कि हमने जो अर्थ किया है वह ठीक है यह देखना है। इसके लिये हम समयसार गाथा १२१ से १२५ तक की टीका को उद्धृत कर रहे हैं : ___ यदि कर्म स्वयमेवबन्धः सन् जीवः क्रोधादिभावेन स्वयमेव न परिणमेत स किलापरिगाम्येव स्यात् । तथा सति संसाराभावः अथ पुद्गलकर्म क्रोधादि जीवं कोषादिभावेन परिणामयति ततो न संसाराभाव इति तर्कः । कि स्वयमपरिणममानं परिणममानं वा पुद्गलकर्म क्रोधादि जीव क्रोधादिभावेन परिणामयेत? न तावतस्वयमपरिणममारणः परेण परिणामयितु पार्येत । न हि जात शक्तयः परमपेक्षन्ते । ततो जीव: परिणामस्वभावः स्वयमेवास्तु तथा सति गरुडध्यान परिणत: साधकः स्वयं गरुड इव ज्ञानस्वभावक्रोवादिपरिणतोपयोगः स एव स्वयं क्रोधादिः स्यात् इति सिद्धजीवस्य परिणामस्वभावत्वम् । यह समयसार प्रात्मख्याति टीका का वचन है । इसमें जीव का परिणाम स्वभाव सिद्ध किया गया है । जीव परिणामस्वभाव स्वंय है, किसी के कारण वह परिणामस्वभाव नहीं है। जव जीव स्वयं परिणामस्वभाव है तो प्रतिक्षण स्वंय ही वह अपने उत्पाद-व्ययरूप परिणाम को प्राप्त करता है अन्यथा ध्रौव्य के समान उत्पाद-व्यय लक्षण नहीं बनता। अन्य द्रव्य के समान जी का यह सामान्य लक्षण है, जो आत्मभूत होने से उसका ही अपना स्वरूप सिद्ध होता है । और स्वरूप पर द्वारा किया जाता नहीं, इस अपेक्षा से आगम में उसे स्वंयसिद्ध स्वीकार किया गया है । अण्टसहस्री पृ० २०७ मे कहा भी है - "स्थित्यादित्रयस्य समुदितस्य वस्तुत्वव्यवस्थानात्" स्थिति आदि तीन मिलकर वस्तु है ऐसी व्यवस्था है। सत् भी इसी का नाम है । कहा भी है - "उत्पाद-व्यय-प्रौव्ययुक्तं सत्" (त० सू०) जीव अजीव का भेद किये बिना यह प्रत्येक वस्तु का सामान्यस्वरूप है। जीव का विशेष लक्षण ज्ञान-दर्शन है, यह अपने अनन्त विशेष गुणों का प्रतिनिधित्व करता है। इस द्वारा जीव द्रव्य का अन्य द्रव्यों से व्यतिरेक सिद्ध होता है। इस प्रकार जिसमें ज्ञानरूप से उत्पाद, व्यय और प्रौव्य का अन्वय पाया जाता है, वह जीव है, यह हमारे अनुभव में माये विना नहीं रहता। . . इस प्रकार विवेक बुद्धि से देखने पर प्रत्येक जीव स्वयं उत्पाद है, स्वयं व्यय है और स्वयं ध्रौव्य है । इन तीनों में लक्षण भेद से भेद है और वस्तुपने की अपेक्षा अभेद है। साथ ही इस दृष्टि से देखने पर जो उत्पाद है वही कथंचित् व्ययं है और कथंचित् प्रोग्य है । जो व्यय है, वही कथंचित् उत्पाद है और कथंचित् प्रौव्य है । तथा जो ध्रौव्य है, वही कथंचित् व्यय है और कथंचित उत्पाद है । इसी विषय को भगवत्स्वरूप आचार्य कुन्दकुन्ददेव परमं भट्टारक तीर्थकरदेव भगवान महावीर की दिव्यध्वनि के सार को ह्रदयंगम करते हुऐ प्रवचनसार मे लिखते हैं - जभवो भंगविहीरणो भंगोवा गस्थि संभवविहीणो। उप्पादो वि य भंगोवा विरणा धौव्वेण प्रत्येण । १००॥ उत्पाद भंगरहित नही होता और भंग उत्पाद के विना नहीं होता तथा उत्पाद पोर भंग ध्रौव्य के बिना नहीं होते ।।
SR No.010316
Book TitleJain Tattva Samiksha ka Samadhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages253
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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