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________________ ३८ इन उद्धरणों को प्रेरक निमित्त के अर्थ में उपस्थित करना समीक्षक के अर्थविपर्यास को सिद्ध करता है। दूसरे इन उद्धरणों का अर्थ करते समय इनसे प्रेरक निमित्तों के समर्थन के अभिनय से समीक्षक ने जो "परिणमदे" और "परिणमन्ते" इन क्रियाओं का क्रम से जो यह अर्थ किया है "कर्मरूप परिणत होता है" और "कर्मरूप से परिणत होते हैं ।" सो इससे समीक्षक के द्वारा किये गये इस अर्थ को अर्थविपर्यास की संज्ञा दी जाय तो कोई अत्युक्ति नहीं होगी, क्योंकि वास्तव में उन दोनों क्रियाओं का क्रम से अर्थ होता है-"परिणमन करता है या परिणमता है" तथा "परिणमन करते हैं या परिणमते हैं।" उसी प्रकार "स्वयं" पद के अर्थ करने में भी समीक्षक ने अपनी मान्यता को पुष्ट करने का असफल प्रयत्न किय है, क्योंकि यहां "स्वयं" पद का अर्थ "पाप ही" हैं । इससे यह स्पष्ट ज्ञात हो जाता है कि पुद्गल कर्मवर्गणायें विना किसी दूसरे की सहायता के स्वयं कर्मरूप परिणम जाती हैं। दूसरे की सहायता से परिणमती है, यह असद्भूत व्यवहार है। उपसंहार [स० पृ० १८] (१) इस प्रकार उपसंहार के रूप में हम यहां उत्तर स्वरूप इतना ही कहना चाहते हैं कि मागम में शब्द प्रयोगों के अर्थ को बदलकर तत्त्व का निर्णय न किया जाकर वस्तु स्वरूप के आधार पर तत्त्व का निर्णय किया जाना योग्य है और यही जिनागम का सार है । (२) नैयायिक दर्शन भी निमित्तों को स्वीकार करता है। उसने ईश्वर को इसी रूप में स्वीकार किया है तथा जैन दर्शन भी निमित्तों को स्वीकार करता है। परन्तु इन दोनों के दृष्टिकोण में जो मौलिक अन्तर है उसे देखते हुये समीक्षक लौकिक कार्यों में जैन दर्शन के दृष्टिकोण को छोड़कर नैयायिक दर्शन के दृष्टिकोण को अपना लेता है। इतना ही नहीं वह (समीक्षक) मोक्ष कार्य को स्वपर प्रत्यय स्वीकार करके भी उस मोक्ष कार्य को भी पर सापेक्ष स्वीकार कर लेता है। वस्तुतः देखा जाय तो नैयायिक दर्शन का दृष्टिकोण भी यही है । जैन दर्शन तो कार्य का मुख्य कर्ता उपादान रूप उस वस्त को ही स्वीकारता है। जहां स्वभाव को गौरण कर परभाव को कर्ता मान विधान किया जाता है, उसे ही लौकिक दृष्टि कहा जाता है, किन्तु जहां पर परभाव को कर्ता न मान कर स्वभाव पर दृष्टि रखकर कार्य का विधान किया जाता है उसको ही अलौकिक या जैन दृष्टि कहते हैं। आशय यह है कि संसार के कार्यों में अज्ञानी के सदा दृष्टि में परावलम्बन की मुख्य ता रहती है और मोक्ष कार्यों में ज्ञानी की दृष्टि में सदा स्वावलम्बन की मुस्यता रहती है। फिर भी एक द्रव्य परमार्थ से दूसरे द्रव्य का कर्ता नहीं होता यह निश्चित है । इसी बात को ध्यान में रखकर स्वामी समन्तभद्र ने "बाहातरोपाधि"." इत्यादि कारिका निबद्ध की है। इसलिये लौकिक कार्यों को पर सापेक्ष कहा जाता है और मोक्षकार्यों को पर निरपेक्ष कहा जाता है यह जिनागम की संगति हैं । इसे समीक्षक जब भी हृदयंगम करेगा उसका हम स्वागत करेंगे। तत्त्वविमर्श में भय का कोई कारण नहीं [स०पृ१६]
SR No.010316
Book TitleJain Tattva Samiksha ka Samadhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages253
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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