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________________ ३७ . प्रायोगिक कार्य दो प्रकार के होते हैं - अजीव सम्बन्धी और जीवाजीव सम्वन्धी । प्राणियों के द्वारा मन-वचन-काय की प्रवृत्ति पूर्वक अजीव सम्वन्धी जितने कार्य होते हैं, वे अजीव विषयक प्रायोगिक कार्य कहलाते हैं । तथा जीव के द्वारा जो कर्म और नोकर्म का ग्रहण होकर जो सम्बन्ध बनता है, वे जीवाजीव विषयक प्रायोगिक कार्य कहे जाते हैं। इनके सिवाय जीवों के मन-वचन और काय को निमित्त न करके अन्य जितने भी कार्य होते हैं, वे सब विस्रसा कार्य कहलाते हैं । इतना अवश्य है कि प्राणियों के पुरुषार्थपूर्वक जितने कार्य होते हैं, उनमें देव की गौणता रहती है' और देव की मुख्यता से जितने कार्य होते हैं उनमें पुरुषार्थ की गौणता रहती है। यह जिनागम की सम्यक् व्यवस्था है। [तत्त्वार्थ वार्तिक अ० ५ सू० २४, आप्तमीमांसा का० ६१] . . ___इस प्रकार इतने विवेचन से हम पहले विवक्षित कार्य और वाह्य निमित्त को ध्यान में रखकर जो अनेक विकल्प लिख पाये हैं उन सवका निराकरण होकर केवल एक यही विकल्प प्रकृत में प्रागम सम्मत ठहरता है कि प्रतिसमय नियत उपादान से नियत कार्य की ही निष्पत्ति होती है और वाह्य व्याप्ति या कालप्रत्यासत्तिवश इस कार्य के नियत निमित्त होते हैं । इसी बात का समर्थन कर्मशास्त्र की समग्र प्ररूपणा से भी होता है। यथा-जिस समय कर्म का उदय, उपशम, क्षय और क्षयोपशम होता है उसी समय औदयिक, औपशमिक, क्षायिक और क्षायोपशमिक भाव भी होते हैं, इनमें समय भेद नहीं हैं। इसी प्रकार जिस समय इस जीव के दर्शनमोह और चारित्रमोह निमित्तक जीव का जो भाव होता है, उसी समय उसको निमित्तकर कर्मबन्ध भी होता है। इसमें भी समय भेद नहीं है । इस प्रकार कार्य और उसके निमित्त - ये दोनों यद्यपि एक काल में होते हैं। फिर भी यह इनके निमित्त से हुआ ऐसा निमित्त-नैमित्तक व्यवहार इन दोनों में वन जाता है । और यही कारण है कि इसे उपचरित या अनुपचरित असद्भूत व्यवहारनय से स्वीकार किया गया है । जहां दोनों एक क्षेत्र में परस्पर अवगाहित होकर होते हैं, वहां उपचरित असद्भूत का व्यवहार होता है तथा जहाँ ये दोनों क्षेत्र भेद से होते हैं, वहाँ अनुपचरित असद्भूत व्यवहार होता है । यद्यपि वाह्य निमित्त से अन्य द्रव्य का कार्य नहीं होता, फिर भी यह इससे हुआ या इसने इसे किया ऐसा व्यवहार किया जाता है । यही कारण है कि आगम में निमित्त-नैमित्तिक सम्बन्ध को उपचरित या अनुपचरित असद्भूत व्यवहार नय का विपय स्वीकार किया गया है। अर्थ विपर्यास - यहाँ समीक्षक ने समयसार की "जं कुणई भावमादा" गाथा ६१ तथा पुरुषार्थसिद्ध युपाय की "जीवकृतं परिणाम" कारिका १२ को स० पृ० १७ में उद्धृत कर उनसे प्रेरक निमित्तों को सिद्ध करने का असफल प्रयत्न किया है । जवकि समयसार की उक्त गाथा में इतना ही कहा गया है कि जिस समय जीव अपने भाव करता है उसी समय पुद्गल कर्मवर्गणाएं स्वयं कर्मस्वरूप परिणम जाती हैं । तथा पुरुषार्थसिद्ध युपाय की कारिका द्वारा "जीव के द्वारा किये गए भावों को निमित्त कर कर्मवर्गणायें स्वयं ही कर्मरूप परिणम जाती है" यह कहा गया है । ऐसी अवस्था में १. पुराकृतं कर्म योग्यता च देवम् । अष्ट स. का..१०१ २. पुरुषार्थः पुनः इहिचेष्टिकृत मदष्टमृ । अष्ट स. का. १११ ।
SR No.010316
Book TitleJain Tattva Samiksha ka Samadhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages253
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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