SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 77
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३६ (१) जब हम यह भले प्रकार जानते हैं कि प्रत्येक द्रव्य के स्वचतुष्टय जुदे-जुदे हैं । ऐसी अवस्था में एक द्रव्य को स्वचतुष्टय दूसरे द्रव्य के स्वचतुष्टय में किसी प्रकार का परिवर्तन नहीं कर सकता। कहा भी है 7 नहि स्वतोsसती शक्ति कर्तु मन्येन पाते । आत्मख्याति टीका समय सार, गाथा ११६-१२० (२) तीनों कालों के जितने समय हैं उतनी ही प्रत्येक द्रव्य की पर्यायें हैं, ऐसी अवस्था में उपादान को अनेक योग्यता वाला मानना कदापि सम्भव नहीं है । आगम में भी ऐसा वचन नहीं मिलता, जिससे उपादान अनेक योग्यता वाला होता है इसका समर्थन हो । विचार करने पर भी स्वतः है और इसलिए मनुष्यगति नाम कर्म के (३) तीसरे द्रव्य उत्पाद - व्यय - ध्रौव्यस्वरूप होता है । इस अपेक्षा जैसे प्रत्येक द्रव्य ध्रौव्य स्वरूप स्वतः है, उसी प्रकार वह उत्पाद और व्ययस्वरूप स्वरूप किसी के द्वारा किया नहीं जा सकता यह वस्तुस्थिति है । उदय से जीव मनुष्य हुआ या अमुक निमित्त से अमुक कार्य हुआ या इसने अपने से भिन्न दूसरे का कार्य कर दिया इत्यादि कहना या लिखना मात्र प्रयोजन विशेष को ध्यान में रखकर प्रसद्भूतं व्यवहारनय से हीं कहा या लिखा जाता है । परमार्थं से तो जिस पर्याय का जो स्वकाल है, उस समय पूर्व पर्याय का व्यय होकर उत्तर पर्याय का उत्पाद स्वयं होता ही है यह उपादान उपादेय भाव की स्वयं सिद्ध व्यवस्था है । (४) प्रवचनसार की दोनों टीकाओं में द्रव्य को उत्पाद व्यय ध्र ुवस्वरूप सिद्ध करने के लिए लटकते हुए हार का उदाहरण दिया है । 'हार में डोरा अन्वय (धीव्य) का प्रतीक है और मरिण उत्पाद व्यय के प्रतीक हैं । जैसे हार में जिस स्थान पर जो मरिण हैं उसे वहां से हटाया नहीं जा सकता, वैसे ही अन्वय में जिस पर्याय का जो स्वकाल है वहां से उसे अलग नहीं किया जा सकता । इतना अवश्य है कि जैसे एक मरिण पर से अंगुली उससे अगले मरिण पर रखने पर पिछला मरिण गौण हो जाता है और अगला मरिण मुख्य वैसे ही विवक्षित एक पर्याय का व्यय होने पर उसी समय उससे अगली पर्याय का नियम से उत्पाद होता है । निमित्त से उसमें क्रमभंग होना सम्भव नहीं है । मात्र उसका सूचक (५) नियत कार्य का नियत प्राग्भाव ( उपादान) होता है । यदि ऐसा न माना जाये तो प्रत्येक द्रव्य की प्रति समय नई-नई पर्याय उत्पन्न होती है यह कथन नहीं बन सकता । इसलिए भी प्रत्येकं पर्याय अपने उपादान के अनुसार होती है यह सिद्ध होता है । वाह्य निमित्त तो या ज्ञापक होता है । तात्पर्य यह है कि कार्य की में ज्ञापक होता है; उसमें जो कारणपने का चाहिए । विवक्षा में सूचक होता और जानने की विवक्षा व्यवहार करते हैं उसे मात्र उपचरित ही जानना (६) यदि कार्य की प्रतिवन्धक सामग्री उपस्थित रहती है तो इससे वह कार्य नहीं होता यह जो परीक्षामुख के एक सूत्र में कहा गया है, सो वह विवक्षित कार्य की अपेक्षा से ही कहा गया है,
SR No.010316
Book TitleJain Tattva Samiksha ka Samadhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages253
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy