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________________ 'विशेपता को' (पर्याय को) यह किया है । दोनों अर्थ एक समान हैं, क्योंकि यहां पर गुण शब्द का अर्थ विशेषता अर्थात् पर्याय ही ली गयी है। समीक्षक ने "गुण" शब्द की जगह "गुण" शब्द रख दिया है। इसमें भूल हमारी कहाँ हुई ? हमने "गुणे" शब्द का अर्थ सप्तमी विभक्ति परक कहाँ किया है ? द्वितिया विभक्तिपरक ही तो किया है। यदि ऐसी व्यर्थ की टीकामों से वह समीक्षा का कलेवर न भरता तो यह अच्छी बात होती। प्रथम शंका के समाधान में इन गाथाओं की बड़ी उपयोगिता है। इन गाथानों से ही तो हमें यह मालूम पड़ता है कि प्रत्येक द्रव्य अपना कार्य स्वयं करता है । काल प्रत्यासत्तिवश बाह्य द्रव्य तो उसमें मात्र निमित्त होता है। ऐसा लगता है कि नय विभाग से दिये गये हमारे समाधान को समीक्षक सहन नहीं कर सका, क्योंकि उसे नय विभाग के बिना दिया गया समाधान ही इष्ट था। अन्यथा वह ऐसे समीचीन समाधान को अवश्य ही स्वीकार कर लेता। . . समीक्षक चाहता है कि निमित्त-नैमित्तिक संबन्ध को भूतार्थ रूप से कार्यकारी माना जाय। सो उसकी परमार्थसे कार्यकारिता तो तव ही बन सकती है, जब वह निमित्त के स्थान में समर्थ उपादान होकर अन्य द्रव्य के कार्य करने में वह अकिंचित्कर ही रहता है। इसे समीक्षक जितने जल्दी स्वीकार करेगा उतनी ही उससे जैन सिद्धान्त की रक्षा होगी। भले ही पूर्व पक्ष की ओर से नय को मुख्य कर प्रश्न नहीं किया गया हो, परन्तु समीक्षक यह जानता है कि पूर्व पक्ष की ओर से जो पृच्छा की गई, वह व्यवहार नय की विपक्षा में ही शंका उपस्थित की गई थी। अतः उत्तर पक्ष ने उनका समाधान परमार्थ को ध्यान में रखकर ही किया था । इसलिये हमने उत्तर पक्ष की ओर से जो भी प्रमाण उपस्थित किये थे, वे सब प्रकृत विषय को स्पष्ट करने में सहायक होने के कारण ही उपस्थित किये थे, अतः प्रकृत. में उनकी उपयोगिता सुतरां सिद्ध हैं। हमने प्रवचनसार गाथा २/७७ आदि के जो प्रमाण उपस्थित किये थे, वे उस प्रयोजन को घ्यान में रखकर ही उपस्थित किये थे। समीक्षक यदि भूतार्थ रूप से निमित्त की कार्यकारिता स्वीकार नहीं करता तो अवश्य ही यह कहा जा सकता था कि आगम में निमित्त का स्थान सुप्रयोजन किया गया है, परन्तु समीक्षक की रट तो यह रही कि निमित्त को भूतार्थ रूप से कार्यकारी मनवाया जाय । इसलिये विवश होकर हमें इस रूप में उसका निषेध करने के लिये वाध्य होना पड़ा है। यदि समीक्षक बाह्य निमित्त को भूतार्थ रूप से कार्यकारी मानने की रट छोड़कर अनुपचरित असद्भूत व्यवहारनय से एक द्रव्य के कार्य में अन्य द्रव्य की निमित्तता को स्वीकार करता है और इस आधार पर उसकी (वाह्य निमित्त की) उपयोगिता स्वीकार करता है या वाह य निमित्त कथन को इस अपेक्षा प्रयोजनीय मानता है तो ऐसा मानने में हमें क्या आपत्ति है। इतना अवश्य है - जितनी भी पागम में बाह्य निमित्त की चर्चा है, वह यह दिखलाने के लिए ही है कि निमित्त परमार्थ से कार्यकारी न होकर वह मात्र उपचरित कथन है, उसको सहायक मानना यथार्थ नहीं है। वाह्य व्याप्तिवश अन्य वस्तु में अन्य कार्य के समय उपचार से हेतुपना अवश्य स्वीकार किया जाता है, परन्तु वह . (वाह्य वस्तु) परमार्थ से कार्य की साधक नहीं होती है । जो उसकी
SR No.010316
Book TitleJain Tattva Samiksha ka Samadhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages253
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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