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________________ २ε हमने (पृष्ठ-2 में न तो कहीं आगम के अर्थ को बदलने का प्रयत्न किया है और न ही कहीं उसका दुरुपयोग ही किया है। पूर्व पक्ष और उत्तर पक्ष - यह तो चर्चा के समय उस पक्ष के द्वारा अपनायी गयी नीति के कारण ही बन गये थे । वस्तुतः यदि वह तत्त्वचर्चा के तीसरे दिन अपने पक्ष के द्वारा उपस्थित की गयी शंकायों को दोनों ओर की सामान्य शंका न वनाता श्रीर न हो प्रथम दिन की 6 शंकाओं के हमारे द्वारा दिये गये उत्तर को पूर्व पक्ष मान कर उन पर लिखे गये प्रतिकात्रों को प्रत्युत्तर न बनाता तो सम्भव था कि हमारे पक्ष द्वारा भी अपर पक्ष के सामने कतिपय शंकाएं उपस्थित की जातीं; परन्तु उस पक्ष द्वारा अपनाई गयी नीति के अनुसार ही ऐसा लगा कि पर पक्ष, हमें अन्त में हारा हुआ सिद्ध करने के अभिप्राय से ही पूरी तैयारी के साथ यहाँ प्राया है, तब हमें अवश्य ही पूरी चर्चा में सावधान रहना पड़ा । समीक्षा पृ. - . के प्रारम्भ में समीक्षक का जो यह कहना है कि उत्तर पक्ष ने अपने पक्ष के समर्थन में जिस श्रागम को पग-पग पर दुहाई दी है उसका उसने बहुत से स्थानों पर साभिप्राय अर्थ भी किया है। जैसा कि पूर्व में बतलाया जा चुका है कि पद्मनन्दि पंचविंशतिका 23-7 का उसने पूर्व पक्ष का मिथ्या विरोध करने के लिये जान-बूझ कर विपरीत अर्थ करने का प्रयत्न किया है । सो इस सम्बन्ध में हमें इतना ही कहना है कि समीक्षक ने प्रेरक कारण मानकर उसका जो यह लक्षण किया है कि प्रेरक निमित्त वे हैं, जिनके साथ कार्य की अन्वय और व्यतिरेक व्याप्तियाँ रहा करती हैं । साथ ही ऐसे निमित्तों की सहायता को वह भूतार्थं मानता है। इतना ही नहीं समीक्षक उपादान का लक्षण पर्याययुक्त द्रव्य न करके मात्र द्रव्य ( सामान्य ) ही करता है । इससे स्पष्ट हो जाता है कि वह (समीक्षक) “द्वयकृती लोके विकारों भवेत” इस वचन के अनुसार संसार रूप कार्य को उपादान और भूतार्थ कार्य मानता है । हम क्या करें, उक्त बातें लिखकर हमने उसकी कथनी का ही भण्डाफोड़ किया है स्पष्ट किया है । यह एक बात हुई, दूसरी बात यह है कि समीक्षक अनेक जगह कर्ता के अर्थ में विवक्षित क्रिया का कर्ता अर्थ नहीं करता है । उदाहरणार्थ समीक्षा पृष्ठ १३ में पुरुषार्थसिद्ध युपाय की समीक्षक ने जो कारिका उद्धृत की हैं उसमें "परिणमन्ते" क्रिया का अर्थ परिगमित होते हैं यह न करके परिणमते हैं यह करना चाहिये । इससे भी यही ध्वनित होता है कि समीक्षक उपादान का अर्थ नहीं करता है फिर भी वह अपनी भूल नहीं स्वीकार करता - - यह उसकी हठ है । (२) शंका १, दौर १, समीक्षा का समाधान समीक्षक का कहना है कि आपने प्रथम दौर में जो समयसार गाथा ८१ को उपस्थित कर उसका अर्थ किया है उसमें आपने बौद्धिक भूल की है । आगे उसका खुलासा करते हुए वह लिखता है कि उस गाथा के प्रथम पाद का यह अर्थ होना चाहिये "जीव कर्म गुण को नहीं करता " और आपने उसके स्थान में यह किया है कि "जीव कर्म में विशेषता को (पर्याय को) उत्पन्न नहीं करता " ऐसा अर्थ करना ही आपकी बौद्धिक भूल हैं सो हमसे कहाँ भूल हुई यह बात हम अभी तक नहीं समझ पाये । समीक्षक ने जहाँ "कम्मगुणे" का अर्थ "कर्म गुण को " यह किया है वहीं हमने कर्म
SR No.010316
Book TitleJain Tattva Samiksha ka Samadhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages253
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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