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________________ ३१ ( निमित्त कथन की ) कार्यकारिता का निषेध करते हैं । वाह्य निमित्त को यदि शंकाकार कार्य का सूचक होने से उपयोगी अर्थात् कार्यकारी या सहायक मानना चाहता है तो ऐसा मानने में हमें कोई प्रापत्ति नहीं है । (३) शंका १, दौर २, समीक्षा का समाधान : हमने, द्वितीय दौर में पूर्व पक्ष ने जितने प्रमाण उपस्थित किये थे, उनको ५ (पांच) भागों में विभक्त कर, उन पर क्रमशः विचार किया था। यहाँ उसके द्वारा प्रत्येक भाग पर समीक्षा के नाम जो कुछ लिखा गया है, उस पर फिर से विचार किया जाता है । प्रथम भाग के आधार पर शंका-समाधान इस चर्चा में वाह्य निमित्त को दो भागों में विभक्त किया गया है विस्त्रता निमित्त और प्रायोगिक निमित्त । तथां इनके समर्थन में सर्वार्थसिद्धि और इण्टोपदेश की टीका के प्रमाण दिये थे । साथ ही यह स्पष्ट कर दिया था कि ये दोनों ही प्रकार के निमित्त कार्य के प्रति उदासीन ही होते हैं । अव यहाँ शंका यह है कि समीक्षक जो दोनों प्रकार के निमित्तों को भूतार्थ रूप से सहायक मान रहा है और उपादान का कार्य न करने के कारण हमारे द्वारा दोनों प्रकार के निमित्तों को जो भूतार्थ रूप से सहायक नहीं माना जा रहा है - इन दोनों विकारों में कौन वाह्य समीचीन है, इसकी यहाँ समीक्षा करनी है - - दोनों प्रकार के बाह्य निमित्तों के लक्षण यद्यपि हम अपने समाधान में उक्त दोनों प्रकार के निमित्तों के लक्षण दे ग्राये हैं - "एक वे जो अपनी क्रिया द्वारा द्रव्य के कार्य में निमित्त होते हैं और दूसरा वे जो चाहे क्रियावान् द्रव्य हों और चाहे अक्रियावान् द्रव्य हों, परन्तु जो क्रिया के माध्यम से निमित्त न होकर निष्क्रिय द्रव्यों के समान अन्य द्रव्यों के कार्य में निमित्त होते हैं ।" ( स. प्र. १३) ये उस समय प्रसंग से हमारे द्वारा किये गये दोनों प्रकार के निमित्तों के लक्षण हैं । समीक्षक ने उक्त दोनों निमित्तों के जो लक्षण दिये हैं, वे इस प्रकार हैं, - "प्रेरक निमित्त वे हैं जिनके साथ कार्य की अन्वय और व्यतिरेक व्याप्तियाँ रहा करती हैं और उदासीन निमित्त वे हैं जिनकी कार्य के साथ अन्वय और व्यतिरेक व्याप्तियाँ रहा करती हैं । "2 'अपने इन लक्षणों में अन्तर दिखाते हुए समीक्षक लिखता है कि अनुकूल निमित्तों का सहयोग मिलने पर उपादान की विवक्षित कार्यरूप परिणति होना और जव तक अनुकूल निमित्तों का सहयोग प्राप्त न हो तब तक उनकी ( उपदान की) विवक्षित कार्य रूप परिणति न हो सकना, यह निमित्तों के साथ कार्य की अन्वय और व्यतिरेक व्याप्तियाँ हैं । तथा उपादान को अपना सहयोग प्रदान करना और उपादान जव तक अपनी कार्यरूप परिणति होने की प्रक्रिया प्रारम्भ नहीं करता, तब तक उनका (निमित्तों का ) अपनी तटस्थ स्थिति में वना रहना यह निमित्तों की कार्य के साथ अन्वय और व्यतिरेक व्याप्तियाँ हैं । इनमें से पहिले प्रकार की अन्वय और व्यतिरेक व्याप्तियों का सद्भाव जिन निमित्तों में पाया जावे, वे प्रेरक निमित्त कहलाने योग्य हैं और दूसरे प्रकार की अन्वय
SR No.010316
Book TitleJain Tattva Samiksha ka Samadhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages253
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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