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________________ २८ भी उसी मत वाला मानना चाहिये जो कार्य हुआ है कारण कि उपादान और निमित्त में कार्य की अपेक्षा काल प्रत्यासत्ति है। (४). समीक्षक ने दोनों के मतानुसार संख्या ४ के अन्तर्गत उपादान कारणता यथार्थ कारणता और मुख्य कर्तृत्व निश्चय नय का विषय लिखा है और निमित्त कारण भूत उदय पर्याय विशिष्ट द्रव्यकर्म से स्वीकृत निमित्त कारणता, अयथार्थ कारणता और उपचरित कर्तृत्व व्यवहारनय के विषय हैं - सो उसका ऐसा लिखना यथार्थ होकर भी इसलिये संगत प्रतीत नहीं होता है, क्यों कि वह न तो उपादान को वास्तविक कारण रहने देना चाहता है और न वाह्य निमित्त को ही अयथार्थ कारण रहने देना चाहता है। हम किसी पर आरोप करना जानते नहीं, जो वस्तु स्थिति है मात्र वह स्पष्ट की है। पृष्ठ ७ में समीक्षक ने "जो उत्तरपक्ष का पूर्व पक्ष पर उल्टा आरोप" शीर्षक के अन्तर्गत जो वक्तव्य दिया है सो इसे उसकी मात्र कल्पना के अतिरिक्त हम और क्या कह सकते हैं। वह अपने आगम के विरुद्ध मत को न छोड़कर उत्तर पक्ष पर "उल्टा चोर कोतवाल को डाटे" यह युक्ति चरितार्थ कर रहा है। ऐसा एक भी प्रसंग नहीं आया जब हमने पूर्व पक्ष के प्रश्न का उत्तर न दिया हो, यदि पूर्व पक्ष हमारे उत्तर में अपने प्रश्न का उत्तर समझनेमें असमर्थ रहता है तो यह उसका ही दोप है, हमारा नहीं। न तो हमने अपने उत्तर में प्रासंगिक और अनावश्यक चर्चा ही प्रारम्भ की है और न ऐसा करने का हमारा अभिप्राय ही रहा है। उसकी बात तो यह है कि वह चाहता था कि हम नय विभाग के विना यह उत्तर दें, परन्तु प्रश्न में गभित नय विभाग को ध्यान में लेकर उसके अनुसार उत्तर दिया है तो अप्रासांगिक और अनावश्यक कैसे हो गया- इसका निर्णय वह स्वयं करे, क्योंकि जिनागम की लगभग पूरी प्ररूपणा नय विभाग पर आश्रित है। उसकी सभी शंकायें नयविभाग पर आश्रित है, ऐसी हालत में उनका समाधान नय विभाग के अनुसार ही होगा। उसके अस्वीकार करने से क्या होता है। आगे समीक्षक ने जो दोनों पक्षों के मध्य मतभेद.की जिस रूप में रेखा खींची है, उसका वह मतभेद बाह्य निमित्त को उसके द्वारा अयथार्थ कारण मानने के कारण स्वयं ही खण्डित हो जाता है । वैसे वस्तुतः उसे (पृष्ठ-६ में) कारण न कहकर उपचरित कारण कहना चाहिये। खानिया तत्त्वचर्चा समीक्षक की दृष्टि में भले ही वितंडावाद बन गयी हो, परन्तु विचारकों के लिये तो वह तत्त्वचर्चा ही है। उससे समीक्षक आदि के विचार कैसे आगम विरुद्ध हैं इसे समझने में विचारकों को बड़ी सहायता मिली है। ___ हमारे ऊपर समीक्षक ने जो यह आरोप किया है कि अपने पक्ष की विजय बनाने की दृष्टि से पूरे तीनों दौरों में हमने अपना प्रयत्न चालू रखा था - सो यह समीक्षक का अपना विचार है, उसे पूरे शंका समाधान में अपनी हार दिखायी देती है, इसलिये उसने अपना यह मत बना लिया है, जबकि इसमें हार-जीत का कोई सवाल ही नहीं है। इतना अवश्य है कि समीक्षक को जिस रूप में अपने व्यवहार पक्ष को उपस्थित करना चाहिये था उसमें वह असफल रहा । — यदि वह व्यवहार पक्ष को व्यवहार पक्ष मानकर ही उपस्थित करतां और निश्चय पक्ष के खण्डन के चक्कर में न पड़ता तो पूरी तत्त्वचर्चा का रूप ही दूसरा होता। हमें दुःख इसी बात का है कि वह पक्ष को उपस्थित करने में असफल रहा।
SR No.010316
Book TitleJain Tattva Samiksha ka Samadhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages253
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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