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________________ (५) पृष्ठ २८० में मीमांसक का यह भी कहना है कि "परावलम्वनवृत्ति को उक्त उभय विद्वान उपचरित अर्थात् कथनमात्र मानने का भले ही आग्रह करते रहें, लेकिन यह वात निश्चित है कि वह परावलम्बनवृत्ति जव जीव के वास्तविक संसार का कारण है तो ऐसी स्थिति में उसे उपचरित (कथन मात्र) कैसे माना जा सकता है ? तीसरे इससे जीव के संसार की सृष्टि में निमित्तों की आश्रितता सिद्ध हो जाने से" कार्य केवल उपादान के बल पर ही उत्पन्न होता है "इस सिद्धान्त का व्याघात होता है।" (६) पृष्ठ २८८ में वह यह भी लिखता है कि "जीव और पुद्गल की मिलावट का नाम संसार कहलाता है और उसके नष्ट हो जाने अर्थात् जीव और पुद्गल के पृथक-पृथक् हो जाने का नाम मोक्ष है ।"..................."आगे इसी पृष्ठ में वह पुनः लिखता है कि "जड़ और चैतन्य सम्पूर्ण पदार्थ परिणमन स्वभाव वाले होने के कारण जहाँ अपनी स्वतन्त्रता के आधार पर क्षणभावी स्वप्रत्यय परिणमन सतत करते रहते हैं, वहां वे सभी प्रकार के परिणमन स्वभाव वाले होने के कारण ही यथासम्भव स्पृष्टता या वद्धता के आधार पर यथायोग्य क्षणमात्र वाले और नानाक्षण वाले स्वपर प्रत्यय परिणमन भी सतत करते रहते हैं । इसी आधार पर नाना वस्तुओं में आधाराधेयभाव व निमित्त-नैमित्तिकभाव की सिद्धि होती है। ये सम्बन्ध यद्यपि नाना वस्तुओं के आधार पर होने के कारण व्यवहारनय के विषय सिद्ध होते हैं, फिर भी ये वास्तविक हैं, गधे के सींग या वन्व्यापुत्र के समान अवास्तविक असत्य या कथन मात्र नहीं हैं।" (७) पृष्ठ २८६ में वह लिखता है कि "फिर भी प्रत्येक पदार्थ के स्वपर प्रत्यय परिणमन में स्व के साथ परपदार्थ की सहायता की अपेक्षा रहने के कारण पर पदार्थ की कारणता का निपेध किसी भी हालत में नहीं किया जा सकता है।" (८) पृष्ठ २६० पर उसका यह भी कहना है कि "एक बात यह भी विचारणीय है कि जीव का सचेतन अचेतन विविध प्रकार के पदार्थों में जो अहंकार या ममकार होता है, उसका अवलम्बन ये सब पदार्थ ही हुआ करते हैं।" (e) पृष्ठ २६१ पर उसका यह भी कहना है कि "फिर दण्ड चक्र आदि साधन सामग्री के सहारे पर बुद्धि पूर्वक किये गये अपने व्यापार से ही मिट्टी में घट निर्माण क्रिया उत्पन्न होने सम्बन्धी अनुभव के आधार पर उस प्रकार का व्यापार किया जाना आदि सब प्रकार का प्रयत्न क्या मूर्खता का ही कार्य समझ लिया जाना चाहिये।" (१०) पृष्ठ २६३ में वह यह भी कहता है कि "यदि कहा जाय कि लौकिक कार्यों में विद्यमान निमित्त-नैमित्तिक भावरूप कार्य-कारण भाव का निषेध जनतत्व मीमांसा में नहीं किया गया है, केवल इतनी बात है कि मुक्ति पाने के लिये जीव का निमित्त की आवश्यकता नहीं है और न निमित्त सामग्री की अपेक्षा रखने वाला जीव कभी मुक्ति पा ही सकता है । इस तरह केवल मुक्ति पाने की दृष्टि से ही जैनतत्त्व मीमांसा पुस्तक लिखी गयी है, तो इस सम्बन्ध में भी मेरा यह कहना है कि निमित्त को अकिंचित्कर सिद्ध करने के विषय में जो कुछ जैनतत्त्व मीमांसा में लिखा गया है, उसमें लौकिक और पारमार्थिक दृष्टियों का भेद दिखलाने का कहीं प्रयत्न नहीं किया गया है । दूसरी
SR No.010316
Book TitleJain Tattva Samiksha ka Samadhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages253
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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