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________________ बात यह है कि मुक्ति के सम्बन्ध में निमित्त-नैमित्तिक भावरूप कार्यकारण भावके विचार की आवश्यकता नहीं है। इस बात का निपेध पूर्व में किया जा चुका है, और आगे भी किया जायेगा। इसलिये यहाँपर मैं इतना ही कहना चाहता हूँ कि मुक्ति भी जीव की स्वपर प्रत्यय पर्याय है । अतः उसकी प्राप्ति के लिये भी निमित्त-नैमित्तिक भावरूप कार्य कारण भाव पर दृष्टि रखना अनिवार्य हा जाता है।" (११) पृष्ठ २९७ में उसका यह भी कहना है कि "यद्यपि निश्चय रत्नत्रय से ही जीव को मोक्ष की प्राप्ति होती है, परन्तु उसे निश्चय रत्नत्रय की प्राप्ति व्यवहार रत्नत्रय के आधार पर ही होती है।" (१२) पृष्ठ ३०१ में उसका यह भी कहना है कि "जीव की वस्तुत्व व्यवस्था के प्रति" यह ऐसा ही है "इस तरह की आस्था हो जाना यह व्यवहार सम्यग्दर्शन है और उसके आधार पर ही उसकी प्रात्मकल्याण में रुचि जाग्रत हो जाना ही निश्चय सम्यग्दर्शन है" आदि । (१३) पृष्ठ ३०६ में उसका यह भी कहना है कि "शुभ योग वह है जो दानान्तराय लाभान्तराय, भोगांतराय और उपभोगांतराय कर्मों का सातिशय क्षयोपशम तथा पुण्यकर्म का उदय रहने पर होता है और अशुभयोग वह है जो दानान्तराय लाभान्तराय, भोगान्तराय और उपभोगान्तराय कर्मों के मन्द क्षयोपशम तथा पापकर्मो का उदय होने पर होता है ।" (१४) पृष्ठ ३१७ में उसका यह भी कहना है कि "सप्तम गुणस्थान से लेकर १०वें गुणस्थान तक के जीवों के संज्वलन कषाय का उत्तरोत्तर मन्द मन्दतर और मन्दतम उदय रहने के कारण प्रारम्भी पापरूप पापाचरण के त्याग की विशेपता होती जाती है और १०वें गुणस्थान के अन्तिम समय में तो संज्वलन कषाय का भी पूर्णतया उपशम या क्षय हो जाने के कारण समस्त प्रारम्भी पापरूप पापाचरण का सर्वथा अभाव हो जाता है, अतः एकादस गुणस्थान से लेकर चतुर्दस गुणस्थान तक के जीव यथाख्यात चारित्र के धारक निश्चय सम्यक्चारित्री हुमा करते हैं । इसका तात्पर्य यह हुआ कि एकादस गुणस्थान से पूर्व पंचम गुणस्थान से लेकर दसम गुणस्थान तक के जीव प्रारम्भी पापरूप पापाचरण के त्यागरूप में व्यवहार सम्यकचारित्री हा करते हैं।" (१५) पृष्ठ ३२० में उसका यह भी लिखना है कि "सप्तम गुणस्थान से लेकर दसम गुणस्थान तक जो पुण्याचरण रहता है, वह केवल धर्मध्यान के रूप में ही वहां रहता है और यही कारण है कि दसम गुणस्थान तक धर्म ध्यान का सद्भाव पागम में स्वीकार किया गया है।" (१६) पृष्ठ ३२५ में वह लिखता है कि "पण्डितजी की मान्यता के अनुसार यदि उपचरित कथन अनुपचरित अर्थ की सिद्धि का कारण है तो वह निरर्थक या कथन मात्र कसे हो सकता है ?" (१७) पृष्ठ ३३३ में उसका कहना है कि "जैसे मिट्टी में जिसप्रकार कुम्भ निर्माण का कर्तृत्व विद्यमान है, उसीप्रकार कुम्भकार व्यक्ति में भी कुम्भ निर्माण का कर्तृत्व विद्यमान है। परन्तु दोनों में अन्तर यह है कि मिट्टी कुम्भ की कर्ता इस दृष्टि से है कि वह कुन्भ रूप परिणत होती है और कुम्भकार व्यक्ति कुम्भ का कर्ता इस दृष्टि से है कि वह मिट्टी के कुम्भ रूप परिणत होने में सहायक होता है।"
SR No.010316
Book TitleJain Tattva Samiksha ka Samadhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages253
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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