SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 49
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ यदि कहा जावे कि यह उदाहरण उदासीन कारणकी विवक्षा में दिया गया है । अतएव वह वैसा ही है जैसा यह कहना कि चौकी पर पुस्तक रखी है तो यह कहना भी ठीक नहीं है, क्योंकि चाहे विस्रसा निमित्त हो या प्रायोगिक पुरुप का योग और उपयोगरूप प्रायोगिक निमित्त हो, निमित्त किसी प्रकार का भी क्यों न हो, कार्य के प्रति उदासीन ही होता है, क्योंकि वह (निमित्त) कार्यकाल में होने वाली अपनी क्रिया को छोड़कर कार्यरूप परिणत अन्य द्रव्य की क्रिया में सर्वथा असमर्थ ही रहता है। जैसे मिट्टी स्वयं परिणमन करके घट बनती है, वैसे कुम्भकार स्वयं योग और उपयोगरूप क्रिया को छोड़कर मिट्टी रूप परिणमन करके घट नहीं वनता, वह कुंभकार ही बना रहता है । अतः जैसे मिट्टी स्वयं घटरूप परिणमी है, वैसे कुंभकार स्वयं घटरूप नहीं परिणमा है। मिट्टी की घटरूप क्रियासे भिन्न ही कुंभकार का उकडू वैठना, हाथों को हिलाना और विकल्पका करना आदि रूप ही क्रिया हुई है, घटरूप क्रिया नहीं हुई। यही कारण है कि समयसार गाथा ८४ की आत्मख्याति टीका में कुंभकार को घटरूप क्रिया करनेवाला न कहकर असद्भूत व्यवहारसे घटकी उत्पत्तिके अनुकूल व्यापार करनेवाला ही कहा गया है। यही कारण है कि समीक्षक के "निमित्त कारण अन्यके कार्यमें सहायक होकर भूतार्थ है।"; इस मान्यताका निरसन करनेके लिये वाध्य होना पड़ा है। कल्पित मीमांसक बन कर उसने "जैनतत्त्व मीमांसाकी मीमांसा" नामक एक पुस्तक लिखी है उसके पृष्ठ २६८ में वह लिखता है कि (१) "हम लोगोंका आगम, अनुभव, इन्द्रिय प्रत्यक्ष और तर्कके आधार पर यह कहना है कि अनुकूल उपादानगत योग्यता और. उसकी कार्याव्यवहितपूर्व पर्याय विशिष्टता विद्यमान रहने पर ही कायोत्पत्ति होगी, लेकिन उपादानके इस स्थिति में पहुंच जाने पर भी उसमें नाना कार्योकी उत्पत्ति संभव रहनेके कारण वही कार्य उत्पन्न होगा जिसके अनुकूल निमित्त सामग्री का सद्भाव और वाधक सामग्री का प्रभाव होगा।" (२) इन्होंने इसी प्राशय का कथन इसी पुस्तक के पृ० २६६ में भी किया है। इसी वात को स्पष्ट करते हुये पृ० २७२ में वे पुनः लिखते हैं "इस बात को ध्यान में रखकर गाथा का अभिप्राय यही निकलता है कि कार्य से अव्यवहित पूर्व क्षणवर्ती पर्याय कारण कहलाती है और इस पूर्व क्षणवर्ती पर्याय से उत्तर क्षणवर्ती पर्याय कार्य कहलाती है, लेकिन कार्य वही उत्पन्न होगा, जिसके अनुकूल निमित्त सामग्री का सद्भाव और वाधक सामग्री का अभाव वहाँ पर होगा।" (३) पृ० २७८ में मीमांसक पुनः लिखता है कि "इस सब विवेचन का सार यह है कि विवक्षित कार्य की उत्पत्ति से अव्यवहित पूर्व क्षरणवर्ती पर्याय उस विवक्षित कार्य की नियामक कदापि नहीं हो सकती है, किन्तु उसकी नियामक अन्य सामग्री ही होती है।" आगे वह इसी पृष्ठ में यह भी लिखता है -"क्योंकि पूर्व परिणमन को यदि उत्तर परिणमन का नियामक माना जायगा तो समान परिणमन होते-होते जो यकायक असमान परिणमन होने लगता है, उसकी असंगति हो जायेगी।" । (४) मीमांसक वरया ग्रन्थमाला पृष्ठ २३४ में लिखता है कि “जब जनदर्शन में प्रत्येक प्रभाव को भावान्तर स्वभाव से ही माना गया है, तो प्रकृत में ज्ञानावरणादि कर्मों के क्षयरूप प्रध्वंसाभाव को उनकी अकर्मरूप उत्तरपर्याय के रूप में ग्रहण करना सूत्रधार के ग्राशय के कदापि विरुद्ध नहीं हो सकता है।" १. . कुम्भसम्भवानुकूल व्यापारं कुर्वाण (स सा.जा. ८४ प्रात्मख्याति टीका)
SR No.010316
Book TitleJain Tattva Samiksha ka Samadhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages253
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy