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________________ १० द्रव्य के कार्य में परमार्थ से सहायक होने से भूतार्थ है या सहायक होने का श्रसद्भूत व्यवहार अर्थात उपचार होने से वह सहायक है । आगे इसी विषय पर सप्रमाण विचार किया जाता है । अन्य द्रव्य अन्य द्रव्य के कार्य में सहायक हो नहीं सकता, क्योंकि प्रत्येक द्रव्य के स्वचतुष्टय अपने-अपने में ही होते हैं और जब एक द्रव्य का स्वचतुष्टय अन्य द्रव्य के स्वचतुष्टयरूप होता ही नहीं, ऐसी अवस्था में अन्य द्रव्य के कार्य में तद्भिन्न अन्य द्रव्य परमार्थ से सहायक होकर भूतार्थ कैसे माना जा सकता है ? श्रर्थात् नहीं माना जा सकता है । इसी बात को स्पष्ट करते हुए आचार्य कुन्दकुन्द समयसार में लिखते हैं कि यदि जीव के साथ मिलकर ही पुद्गल द्रव्य का कर्म परिणाम होता है तो ऐसा होने पर जीव और पुद्गल दोनों कर्मभाव को प्राप्त ही जायेंगे । और यदि एक द्रव्य पुद्गल का ही कर्मरूप से परिणाम माना जावे तो जीवभाव को हेतु किये बिना ही पुद्गल का कर्मरूप परिणाम होना नियम से मानना होगा । (स० सा० गा० १३७-३८) यह वस्तुस्थित है । इसे ध्यान में लेने पर यह स्पष्ट हो जाता है कि परमार्थ से एक ही द्रव्य स्वयं ही अन्य की अपेक्षा किये बिना विवक्षित कार्यरूप परिणमित होता है, क्योकि प्रत्येक द्रव्य का कार्यरूप परिणमना, यह उनका अपना स्वभाव है और इसी कारण श्राचार्यों ने वस्तु के वस्तुत्व का स्पष्टीकरण करने के अभिप्राय से उसके स्वरूप पर प्रकाश डालते हुए लिखा है - "अर्थक्रिया कारित्वं हि वस्तुनो वस्तुत्वम्", अर्थात् प्रत्येक समय में काम करते रहना यह प्रत्येक वस्तु का वस्तुत्व है। इसके साथ ही वे (प्राचार्य) यह भी लिखते हैं कि "स्वोपादानपरापोहनं हि वस्तुनो वस्तुत्वम्" अर्थात् स्व को ग्रहण करके रहना और पर को अपने से दूर रखना यह भी प्रत्येक वस्तु का वस्तु है । कि यदि ग्राकाश द्रव्य स्वप्रतिष्ठ द्रव्यों का अन्य आधार कल्पित "ऐसी अवस्था में निमित्तकारण अन्य द्रव्य के कार्य में सहायक होता है, इस अपेक्षा से वह भूतार्थ है ।" समीक्षक का यह कहना कैसे युक्तियुक्त माना जा सकता है ? अर्थात् नहीं माना जा सकता है । इसी निमित्त - नैमित्तिक सम्बन्ध को ध्यान में रखकर ( सर्वार्थ सिद्धि अ. ५ सू ११ की टीका में) यह प्रश्न उठाया गया है कि यदि धर्मादि द्रव्यों का आधार लोकाकाश है तो आकाश द्रव्य का दूसरा आधार निमित्त है ? इसके उत्तर स्वरूप वहां कहा गया है कि आकाश का अन्य दूसरा द्रव्य ग्राधार नहीं है, वह स्वप्रतिष्ठ है । इस पर पुनः यह शंका की गयी है है तो धर्मादिक द्रव्य भी स्वप्रतिष्ठ ही होने चाहिये यदि धर्मादिक करते हैं तो आकाश द्रव्य का भी अन्य आधार कल्पित करना चाहिये । और ऐसा होने पर अनवस्था दोष का प्रसंग आता है । इसका समाधान करते हुए आचार्यदेव लिखते हैं कि यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि प्रकाश से अधिक परिमाण वाला अन्य द्रव्य नहीं पाया जाता जिसमें ग्राकाश को स्थित कहा जावे । वह सबसे बड़ा श्रनन्त स्वरूप है, इसलिए धर्मादिक द्रव्यों का व्यवहारनय से आकाशद्रव्य किरण कहा जाता है, एवं भूतनय की विवक्षा में तो सब ही द्रव्य स्वप्रतिष्ठ ही हैं । कहा भी है आप कहाँ रहते हैं ? अपने में धर्मादिक द्रव्य लोकाकाश के बाहर नहीं पाये जाते इतना ही, आधार आधेय कल्पना करने का फल है । इस कथन से निश्चित होता है कि बाह्य द्रव्य में स्वरूप से निमित्ता नहीं हुआ करती, माना काल प्रत्यासत्ति के आधार पर उसे उपचार निमित्त कल्पित किया जाता है, इसलिये नैगम रूप द्रव्यार्थिक की अपेक्षा उसकी परिगणना नौ कर्म में की जाती है । ।
SR No.010316
Book TitleJain Tattva Samiksha ka Samadhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages253
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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