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________________ - यहां यह देखना है कि उक्त शंका का हमने जो समाधान उपस्थित किया है वह अप्रासंगिक न होकर सटीक कैसे है ? बात यह है कि लोक में जितने भी कार्य होते हैं, वे सव वाह्य और आभ्यन्तर उपाधि की समग्रता में ही होते हैं, इसलिये यदि दूसरा पक्ष व्यवहारनयको ध्यान में रखकर ऐसी शंका उपस्थित करता कि "द्रव्यकर्म के उदय को निमित्त कर संसारी आत्मा विकार भाव और चतुर्गतिभ्रमण को प्राप्त होता है या नहीं" तो अवश्य ही हम उनकी उस शंका का उसी रूप में समर्थन करते । किन्तु दूसरा पक्ष मात्र 'द्रव्यकर्म के उदय से संसारी आत्मा का विकारभाव और चतुर्गतिभ्रमण को स्वीकार कराना चाहता है' जो युक्ति युक्त नहीं है, मात्र इसलिये हमने यह उत्तर दिया था कि द्रव्यकर्म के उदय तथा संसारी आत्मा का विकारीभाव चतुर्गतिभ्रमण में निमित्त-नैमित्तिक संबंध है, कर्ता-कर्म संबंध नहीं । द्रव्य कर्म के उदय ने कुछ संसारी आत्मा का विकारभाव और चतुर्गतिभ्रमण नहीं कराया है । किन्तु द्रव्यकर्म के उदय को निमित्त कर संसारी आत्मा ने स्वयं ही विकारभाव और चतुर्गतिभ्रमणरूप कार्य किया है, इसलिये संसारी आत्मा आप कर्ता होकर विकारभाव को प्राप्त हुआ है और चतुर्गतिभ्रमण करता है। उसमें द्रव्यकर्मका उदय निमित्तमात्र है। द्रव्यकर्म का उदय स्वयं कर्ता नहीं, और न संसारी आत्मा का विकारभाव और चतुर्गतिभ्रमण उसका कर्म है। यदि द्रव्यकर्म के उदय का, संसारी आत्मा के विकारभाव तथा चतुर्गतिभ्रमण को कर्म कहा भी जाता है तो वह मात्र उपचार से ही कहा जायगा, परमार्थ से नहीं। यह हमारे पूरे समाधान का स्पष्टीकरण है, इसलिये उक्त शंका से हमारे समाधान को समीक्षक द्वारा अप्रासंगिक कहना कोरी कल्पना ही है। . हमने पूर्वोक्त इसी भाव को स्पष्ट करने के लिए जो समयप्रामृत गाथा ८० से ८२ तक की गाथायें उद्धत की थीं सो वे गाथायें इसी प्राशय से उद्धृत की थीं। किन्तु इसका हमें खेद है कि (शंकाकार ) ठीक प्राशय को न समझकर अपनी रट लगाये जा रहा है । अस्तु । (२) प्रांगे समीक्षक ने अपनी प्रथम शंका के प्राशय को स्पष्ट करने के अभिप्राय से जो यह लिखा है-"इस प्रश्न का आशय यह था कि जीव में जो क्रोध आदि विकारी भाव उत्पन्न होते हुये प्रत्यक्ष देखे जाते हैं, क्या वे द्रव्य कर्मोदय के विना होते हैं या द्रव्य कर्मोदय के अनुरूप होते हैं। संसारी जीव का जन्म, मरण रूप चतुर्गतिभ्रमण दिखायी दे रहा है, क्या वह भी कर्मोदय के आधार से हो रहा है, या जीव स्वतन्त्र अपनी योग्यतानुसार चतुर्गतिभ्रमण कर रहा है ? समीक्षा १, पृ०-१ समीक्षक के इस वक्तव्य में मुख्यतः दो वातें विचारणीय हैं : (अ) क्या वे (विकारभाव व चतुर्गतिभ्रमण) द्रव्य कर्मोदय के विना होते हैं या द्रव्य कर्मोदय के अनुरूप होते हैं । ( पृ०-१) (ब) संसारी जीव का जो जन्म मरण रूप चतुर्गतिभ्रमण दिखायी दे रहा है, क्या वह भी कर्मोदय के अधीन हो रहा है या यह जीव स्वतन्त्र अपनी योग्यतानुसार चतुर्गतिभ्रमण कर रहा है। (अ) प्रथम वात के विचार के उत्तरस्वरूप यह स्पष्ट कर देना आवश्यक प्रतीत होता है कि कर्मोदय कर्म में होता है और विकारभाव व चतुर्गतिभ्रमण जीव में होता है, इसलिये परमार्थ से
SR No.010316
Book TitleJain Tattva Samiksha ka Samadhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages253
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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