SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 42
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ यदि यह कहा जाता है कि विकारभाव त्र चतुर्गतिभ्रमण जीव में कर्मोदय के बिना होता है तो यह कहना आगम विरुद्ध नहीं है । इसी बात को स्पष्ट करते हुये समयसार में कहा भी है "एकस्स दु परिणामो पोग्गलदव्वस्स कम्मभावेण । ता जीवभावहेहि विरणा कम्मस्स परिणामो ।। पुद्गल द्रव्य एक का कर्मरूप परिणाम होता है, इसलिए जीव भावरूप वह पुद्गल कर्म रूप परिणाम है । १३८ ।। " निमित्त से भिन्न हो वे (विकारभाव व चतुर्गतिभ्रमण ) कर्मोदय के अनुरूप होते. हैं, यह कहना भी असद्भूत व्यवहार है परामर्थ नहीं, क्योंकि विकार भाव व चतुर्गतिभ्रमरण जीव का परिणाम है जिसे जीव ने स्वयं किया है और कर्मोदय पुद्गल का परिणाम है जिसे पुद्गल ने स्वयं किया है। इसलिए जीव के परिणाम को पुद्गल के द्वारा किया जाना कहना परमार्थ कैसे बन सकता है ? असद्भूत व्यवहार से ऐसा कहने में हमें कोई आपत्ति नहीं है । (ब) दूसरी बात का जब विचार करते हैं तो यह कहना अधिक उपयुक्त प्रतीत होता है कि परमार्थ से कोई किसी के अधीन होकर वर्तता ही नहीं, इसलिए "संसारी जीव का विकारंभाव व चतुर्गति भ्रमण कर्मोदय के अधीन हो रहा है", यह कहना भी असद्भुत व्यवहार ही है । वस्तुतः संसारी जीव स्वयं ही अपने अज्ञानभाव के कारण प्रसद्भूत व्यवहार से कर्मोदय को निमित्त कर परिणमन करता हुआ अपने को कर्मोदय के अधीन मानता आ रहा है, इसलिए संसारी जीव का अपनी योग्यतानुसार चतुर्गतिभ्रमरण यदि कहा जाय तो उसमें कोई बाधा नहीं दिखाई देती, क्योंकि जीव के जितने भी कार्य होते हैं वे व्यवहार निश्चय से पाँचों के समवाय में ही होते हैं यह आगम है, इसलिए विवक्षा भेद से अपनी उक्त योग्यतानुसार यह कार्य हो रहा है - यह कहना भी बन जाता है । इसमें श्रागम से कोई बाधा नहीं आती । (३) समीक्षक ने श्रागे जो कुछ लिखा है- "यदि क्रोधादि विकार भावों को कर्मोदय विना मान लिया जावे तो उपयोग के समान वे भी जीव के स्वभाव भाव हो जावेगे और ऐसा मानने पर इन .विकारी भावों का नाश न होने से मोक्ष के प्रभाव का प्रसंग श्रा जावेगा । (समीक्षा पृ०२) सो - समीक्षक का ऐसा कहना भी ठीक नहीं है, क्योंकि क्रोधादि विकारी भावों को जीव स्वयं करता है, इसलिए निश्चय नय से वे परनिरपेक्ष ही होते हैं, इसमें सन्देह नहीं । कारण कि एक द्रव्य के स्वचतुष्टय में अन्य द्रव्य के स्वचतुष्टय का अत्यन्ताभाव है । इस तथ्य को ध्यान में रखकर श्री जयधवला की पु० पृ११७ में कहा है ........कारण निरवेक्खो वत्थु परिणामो" प्रथं - प्रत्येक वस्तु का परिणाम वाह्य कारण निरपेक्ष होता है, किन्तु जिस समय जीव क्रोधादि भाव रूप से परिणमता है उस समय क्रोधादि द्रव्य कर्म के उदय की क्रोधादि भावों के साथ कालप्रत्यासत्ति होती है, इसलिए श्रसद्भूत व्यवहार से क्रोधकपाय के उदय को निमित्तकर जीव ने क्रोधभाव किया, यह कहा जाता है। इसलिए उपयोग के समान क्रोधादि विकारी भाव जीव के - स्वभाव नहीं ठहरते । श्रतः सहज स्वभाव का अवलम्बन करने पर त्रोघकषाय के उदय के अभाव के
SR No.010316
Book TitleJain Tattva Samiksha ka Samadhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages253
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy