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________________ मालूम पड़ता है कि अभी भी श्री पं. बंशीधरजी व्याकरणाचार्य के चित्त में उनके दूसरे सहयोगी अन्य चार विद्वानों के समान स्थिरता न आने का यह परिणाम है, जिस कारण उन्होंने तत्त्वचर्चा के प्रारम्भ में दोनों पक्षों द्वारा स्वीकृतं उन सब निर्णयों को ताक पर रखकर इस चर्चा को पुनः उभारने का दुष्प्रयत्न किया है और यही कारण है कि हमें इसका पुनः समाधान करने के लिये वाध्य होना पड़ रहा है। जैसा कि हम पूर्व में लिख पाये हैं, उनके सहयोगी चारों विद्वान् तीसरे दौर में इनसे अलग हो गये थे, अन्यथा इनके समान अन्य चारों विद्वानों के हस्ताक्षर उसमें पाये जाते । परन्तु शेष चारों विद्वानों के हस्ताक्षर न होने से यह दर्पण के समान विल्कुल स्पष्ट हो जाता है कि तीसरे दौर की जो भी सामग्री पूर्वपक्ष के रूप में इन्होंने तैयार की थी, उससे वे चारों विद्वान् पूरी तरह सहमत नहीं थे। इतना सब होते हुये भी इन्होंने समीक्षा लिखने के अधिकारी न होते हुये भी खानिया तत्वचर्चा के तीन शंका-समाधानों की समीक्षा लिखने का दुस्साहस किया । अस्तु, मार्ग दो हैं-एक संसार का मार्ग और दूसरा मोक्ष का मार्ग । जीवन में संसार के मार्ग की प्रसिद्धि जहां परलक्षी परिणामों से होती हुई प्रतिक्षण अनुभव में आती है वहां जीवन में मोक्ष मार्ग की प्रसिद्धि परको गौण कर आत्मलक्षी परिणामों से होती हुई अनुभव में आती है। यह मूल मन्तव्य है । इसको ध्यान में रखकर जव विचार करते हैं तब आत्मलक्षी दृष्टि से यही कहना उपयुक्त प्रतीत होता है कि मैं अपने अपराध के कारण ही विकारभाव तथा चतुर्गति भ्रमण को प्राप्त हो रहा हूँ, जो यथार्थ है । इसके साक्षीरूप में एक मर्मज्ञ कवि की उक्ति पर दृष्टिपात कीजिये : "कर्म विचारे कौन भूल मेरी अधिकाई । लोह सहे धनघात अग्नि की संगत पाई ॥" तथा परलक्षी दृष्टि से उस सम्बन्ध में यह कहा जाता है कि द्रव्यकर्मके उदयसे संसारी आत्मा विकारभाव व चतुर्गति-भ्रमण को प्राप्त होता है, जो उपचरित होने से प्रयोजन के अनुसार बाह्य व्याप्ति को ध्यान में रखकर कहा गया है, यह वस्तुस्थिति है जिन शास्त्रों में इसकी विशदरूप से प्ररूपणा दृष्टिगोचर होती है। यही कारण है कि प्रथम दौर में हमने उक्त शंका-का समाधान करते हुये बुद्धिपूर्वक यह समाधान किया था कि "द्रव्यकर्मों के उदय और संसारी आत्मा के विकारभाव व चतुर्गति भ्रमण में निमित्त-नमित्तक संबंध है, कर्ता-कर्म संबंध नहीं हैं । किन्तु दूसरा पक्ष विशेषतः श्री पं. बंशीधरजी व्याकरणाचार्य इसे अपनी शंका का समाधान नहीं मानकर तीसरे और प्रकृत समीक्षा - में यही लिखे जा रहे हैं कि यह हमारी शंका का समाधान नहीं है । "आपके द्वारा इस प्रश्न का उत्तर न तो प्रथम वक्तव्य में दिया गया है और न इस दूसरे वक्तव्य में दिया गया है।" हमारे उक्त उत्तर को अप्रासंगिक मानते हुए पं.श्री वंशीधरजी 'व्याकरणाचार्य यह भी लिखते हैं कि "आपने अपने दोनों वक्तव्यों में निमित्त-कर्त-कर्म संबंध की 'अप्रासंगिक चर्चा प्रारम्भ करके मूल प्रश्न के उत्तर को टालने का प्रयत्न किया ।" .
SR No.010316
Book TitleJain Tattva Samiksha ka Samadhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages253
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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