SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 39
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जैनतत्त्व समीक्षा का समाधान मंगलम् भगवान् वीरो, मंगलम् गौतमो गणी। मंगलम् कुन्दुकुन्दार्यो, जैनधर्मोस्तु मंगलम् ॥ अथ नत्वा. जिनवीरं मोक्षमार्गप्रकाशकम् । जैनतत्वसमीक्षाया समाधान विधीयते ॥॥ दौर १, शंका १ समीक्षा का समाधान द्रव्यकर्म के उदय से संसारी आत्मा का विकारभाव और चतुर्गतिभ्रमरण होता है या नहीं? १. सामान्य समीक्षा का समाधान (१) समीक्षकों द्वारा उपस्थित की गयी इस शंका के नियमानुसार दोनों पक्षों के सव विद्वानों द्वारा शंका-समाधान के रूप में दो दौर पूर्ण हो जाने के बाद तीसरे दौर के प्रारम्भ में शेष सव विद्वान् श्री पं. माणिकचन्दजी न्यायाचार्य, श्री पं. मक्खनलालजी न्यायालंकार, श्री पं. जीवंधरजी न्यायालंकार और श्री पं. पन्नालालजी साहित्याचार्य के अलग हो जाने पर भी मात्र श्री पं. वंशीधरजी व्याकरणाचार्य के द्वारा तीसरे दौर का पूर्वपक्ष के उपस्थित करने पर भी यह विचार कर कि हमारा पक्ष समाधान करने में असमर्थ रहा, इसलिये उस पक्ष के एक विद्वान् द्वारा तीसरे दौर का पूर्वपक्ष उपस्थित करने पर भी हमारे पक्ष द्वारा उसका उसी समय समाधान किया गया। यद्यपि इस समय पूर्व पक्ष के पं. श्री पन्नालालजी साहित्याचार्य और पं. वंशीधरजी व्याकरणाचार्य ही मौजूद हैं और शेष तीन विद्वान् परलोकवासी हो गये हैं, परन्तु जिस समय यह तीसरा दौर सम्पन्न हुआ था उस समय उस पक्ष के सव विद्वान मौजूद थे। फिर भी उन विद्वानों ने तीसरे दौर को पढ़कर भी कोई प्रतिक्रिया व्यक्त नहीं की, सब चुप रहे आये । यद्यपि एकमात्र श्री पं. वंशीधरजी व्याकरणाचार्य ने अकेले तीसरे दौर का पूर्वपक्ष लिखा था और उस सम्बन्ध में दिल्ली में उपस्थित रहने वाले कुछ विद्वानों द्वारा हमें यह सूचना मिली थी कि यहां पर कई विद्वानों ने मिलकर उसका वाचन किया है। फिर भी वे विद्वान् उससे अलग रहे आये । श्री पं. वंशीधरजी व्याकरणाचार्य को अपने हस्ताक्षर करके तीसरे दौर का पूर्वपक्ष हमारे पास भेजना पड़ा। नियमानुसार श्रद्धेय श्री पं. वंशीधरजी न्यायालेकार मध्यस्थ के द्वारा तीसरे दौर का पूर्वपक्ष हमारे पास आना चाहिये था, परन्तु श्री पं. बंशीधरजी व्याकरणाचार्य ने इस नियम का पालन नहीं किया, फिर भी हमारे पक्ष द्वारा अनियमित रूप से भेजे गये इस दौर का भी हमने समाधान लिखा और हमारे पक्ष के सब विद्वानों के द्वारा वाचन होने के बाद ही हमने नियमित रूप से मध्यस्थ के मार्फत उनके पास भिजाया । यध
SR No.010316
Book TitleJain Tattva Samiksha ka Samadhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages253
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy