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________________ २०५ - इस पर हमारा यह खुलासा उस पूर्ववक्ष को आपत्तियोग्य मालूम पड़ा है। उसने अपने अभिप्राय से जो व्यवहारधर्म को अशुभ से निवृत्तिरूप बतलाकर उसरूप अंश से जो कर्मों के संवर और निर्जरा का विधान किया है वह ठीक नहीं है, क्योंकि अशुभ से निवृत्ति का अर्थ ही शुभ में प्रवृत्ति होता है। क्योंकि पूर्व पर्याय के व्यय का नाम ही नयी पर्याय का उत्पाद कहलाता है । अन्यथा जैनधर्म में जिसे वह पक्ष निवृत्ति कहता है, वह अभावरूप अंश वस्तु का स्वभाव नहीं बन सकता। यदि उसे प्रवृत्तिरूप नहीं माना जाय और जिसप्रकार अशुभ से निवृत्ति और शुभ में प्रवृत्ति इन दोनों का अर्थ एक न मानकर भिन्न-भिन्न माना जाय तो शुभ और अशुभ की निवृत्ति का नाम स्वभावधर्म नहीं हो सकेगा। . . - हमने जो उस गाथा का अर्थ किया है, उसमें पूर्वपक्ष के मतानुसार यदि "अर्थात् मोक्षमार्ग" यह पद न रखा जाय तो भी इसमें तत्त्वप्ररूपणा की दृष्टि से हमारी कोई हानि नहीं है - प्रत्युत लाभ ही है। कारण कि मोक्षमार्ग निश्चयमोक्षमार्ग और व्यवहारमोक्षमार्ग के भेद से दोनों प्रकार का माना गया है। इसलिए यह शंका हो सकती है कि यहां पर स्वभाव के प्राराधना के काल में उपयोग में किस मोक्षमार्ग को ग्रहण किया गया है, व्यवहार मोक्षमार्ग को तो ग्रहण किया नहीं जा सकता, क्योंकि उसमें प्रवृत्ति की प्रमुखता है, प्रवृत्ति से भिन्न निवृत्ति की मुख्यता नहीं है और स्वभाव की आराधना के काल से तात्पर्य शुद्धोपयोग से ही है, ऐसा यहां समझना चाहिए। उस पक्ष का अन्य जितना भी कथन है, उसका विशेष खुलासा उक्त कथन से ही हो जाता है। इसलिये उस विषय में • उसके कथन को गौणकर प्रकृत में उपयोगी चर्चा के आधार पर ही ऊहापोह करना ठीक लगता है। - आगे त. च. पृ. १३२ पर हमने जो व्यवहारधर्म को असद्भूत व्यवहारनय का विषय बतलाया है, उस पक्ष का कहना है कि वह सद्भूतव्यवहारनय का विषय है। उसका यह कहना इसलिए समीचीन नहीं है, क्योंकि इससे प्रशस्त राग और मन, वचन, काय की प्रवृत्ति को आत्मस्वरूप मानने का प्रसंग प्राप्त होता है। जबकि प्रशस्त राग और शुभरूप मन-वचन-काय को प्रवृत्ति ये कर्मोपाधि के निमित्त से उत्पन्न हुए धर्म हैं, अतः उन्हें स्वभावभूत प्रात्मरूप कैसे माना जा सकता है ? यदि वे आत्मा के स्वभाव मान लिये जायें तो सिद्धों में भी उनकी प्राप्ति का प्रसंग प्राप्त होता है, इसलिये उन्हें स्वभावभूत आत्मा में असद्भुत ही मानना युक्तियुक्त प्रतीत होता है। इसलिये ही वे आगम में असद्भूत व्यवहारनय. से आत्मा के कहे गये हैं, ऐसा यहाँ जानना चाहिए। .. हमने त. च. पृ. १३२ पर पंचास्तिकाय गा १०५ की जयसेनकृत टीका और वृहद्रव्यसंग्रह की टीका पृ. २०४ के कथन को ध्यान में रखकर जो यह लिखा था कि व्यवहारधर्म परम्परा से मोक्ष . का कारण है, सो उसके आशय को हमने कहीं भी उलट-पलट नहीं किया है। इतना सही है कि उसका आशय अवश्य खोला है। आगे मोक्षमार्ग प्रकाशक पृ. ३७७ (दिल्ली संस्करण) के वचन को उद्धृत कर जो हमने लिखा है, उसका आशय यह नहीं है कि शुभोपयोग के अनन्तर ही शुद्धोपयोग प्राप्त होता है, जैसा कि वह पक्ष मानता है। किन्तु उसका प्राशय यह है कि जहाँ शुभोपयोग होता है, उसके बाद निर्विकल्प
SR No.010316
Book TitleJain Tattva Samiksha ka Samadhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages253
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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