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________________ २०६ दशा में स्वभाव के अवलम्वन से शुद्धोपयोग होना स्वभाव है और इसलिए पंडितजी ने यह उपदेश किया है कि "शुभोपयोग भए निकट शुद्धोपयोग प्राप्ति होय । ऐसा मुख्यता करि कहीं शुभोपयोग को शुद्धोपयोग का कारण भी कहिए है" इसलिए निष्कर्ष यही निकलता है कि शुभोपयोग पराश्रित भाव होने से मात्र श्रास्रव और बंघ का ही कारण है और शुद्धोपयोग परनिरपेक्ष होने से मात्र संवर और निर्जरा का ही कारण है । मैने त. च. पृ. १३२ पर यह लिखा है कि वस्तुतः मोक्षमार्ग एक 'है और उसके समर्थन में मोक्षमार्गप्रकाशक पृ. ३६५ - ३६६ (दिल्ली संस्करण) का कथन उद्धृत किया है, इस पर उस पक्ष का कहना है कि "दो मोक्षमार्गो का निषेध करना इस रूप में विवाद की वस्तु नहीं है । यदि कोई ऐसा माने कि एक व्यक्ति तो व्यवहार मोक्षमार्ग निरपेक्ष निश्चय मोक्षमार्ग से मोक्ष प्राप्त कर सकता है। और दूसरा व्यक्ति निश्चयमोक्षमार्ग निरपेक्ष व्यवहार भोक्षमार्ग से मोक्ष प्राप्त कर सकता है, सो उसका ऐसा मानना मिथ्या है " आदि । सो इस संबंध में हमारा कहना यह है कि जब दो मोक्षमार्ग ही नहीं हैं जिसे पूर्वपक्ष भी स्वीकार करता है, ऐसी अवस्था में तत्वज्ञ कोई ऐसा क्यों मानेगा कि व्यवहार मोक्षमार्ग निरपेक्ष निश्चय मोक्षमार्ग से मोक्ष प्राप्त किया जा सकता है, या निश्चय मोक्षमार्ग निरपेक्ष व्यवहारमोक्षमार्ग से मोक्ष प्राप्त किया जा सकता है । वस्तुस्थिति यह है कि मोक्षमार्ग तो एक ही है जो निश्चयरूप होता है, व्रतादिरूप जो अन्य क्रियाकाण्ड होता है या वह प्रशस्त देवादि की उपासनारूप परिणाम होता है, वह आत्मस्वरूप न होने से, वास्तव में मोक्षमार्ग तो नहीं ही हो सकता । केवल सहचर संबंधवश निमित्तपने की विवक्षा में उसमें मोक्षमार्गपने का उपचार अवश्य कर लिया जाता है । इसलिये जो निश्चयमोक्षमार्ग श्रागम में स्वीकार किया गया है, वह परनिरपेक्ष ही होता है, क्योंकि वह जीव का सहज स्वरूप है । जिसे वह पक्ष व्यवहार मोक्षमार्ग कहता है, वह जीव का सहज स्वरूप नहीं है, इसलिये उसमें निश्चय मोक्षमार्गपना घटित नहीं होता - ऐसा यहाँ समझना चाहिए । " त. च. पृ. १३३ पर प्रवचनसार के जिस वचन को हमने उद्धृत किया है, उसके संबंध में उस पक्ष का कहना है कि उस वचन में जो कुछ भी कथन किया गया है, उसे हम भी स्वीकार करते हैं; किन्तु उसके वाद उस पक्ष ने जो यह लिखा है कि "वह मोक्ष के साक्षात् कारणभूत निश्चयमोक्षमार्ग का ही साक्षात् कारण होता है" सो उस पक्ष का यही कहना भूल भरा है। उत्तरपक्ष द्वारा दिये गये उक्त उद्धरण के अनुसार वस्तु को समझने में उसकी कोई भूल नहीं है । जहाँ वह पक्ष यह मानता है कि व्यवहारमोक्षमार्ग निश्चयमोक्षमार्ग का साक्षात् कारण है, वहाँ उत्तरपक्ष का श्रागम के अनुसार कहना यह है कि व्यवहार मोक्षमार्ग निश्चयमोक्षमार्ग का साक्षात् कारण तो नहीं ही है, मात्र उसमें निश्चयमोक्षमार्ग के कारणपने को व्यवहार अवश्य कर लिया जाता है, क्योंकि जब व्यवहार मोक्षमार्ग नाम की कोई वस्तु ही नहीं है, केवल उपचार मात्र है, ऐसी अवस्था में उसे निश्चय मोक्षमार्ग का साक्षात् कारण कैसे कहा जा सकता है अर्थात् नहीं ही कहा जा सकता ।
SR No.010316
Book TitleJain Tattva Samiksha ka Samadhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages253
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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