SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 242
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २०४ मालूम पड़ता है कि वह पूर्वपक्ष स्वभावपर्याय को भी स्वपर सापेक्ष मानता है और वह एक ऐसी तीसरी प्रकार की पर्याय मानता है, जिसके होने में निमित्त होता ही नहीं। उसे वह पड्गुण हानि-वृद्धिरूप कहता है। इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि वह पक्ष अपनी मान्यता की धुन में ही इन दोनों गाथानों के उत्तरार्द्ध में सम्बन्ध का निषेध कर रहा है । इसे . कहते हैं देखते-देखते आंखों में धूल झोंकना। ___ स्वभावपर्याय परनिरपेक्ष होती है, इसके समर्थन में हम उसी नियमसार का एक दूसरा प्रमाण भी उपस्थित कर देना चाहते हैं । यथा - अण्णारिणरावेक्खो जो परिणामो सो सहावपज्जावो। खंधसरूवेण पुरणो परिणामो सो विवाहपज्जायो ॥२८॥ तात्पर्य यह है कि अन्य निरपेक्ष जो पर्याय होती है, वह स्वभाव पर्याय कहलाती है। तथा स्कंधरूप जो पर्याय होती है, वह विभाव पर्याय कहलाती है। ___ यहां जो हमने गाथा २८ का उक्त प्रमाण उपस्थित किया है, उसमें स्पष्टरूप से स्वभावपर्याय को परनिरपेक्ष कहा गया है। यह पुद्गलपरमाणु की शुद्धपर्याय है। इसमें कालद्रव्य निमित्त तो अवश्य है पर इस पर्याय के होने में उसको इष्ट-अनिष्ट की दृष्टि से उसे स्वीकार नहीं किया गया। पुद्गलपरमाणु की यह अर्थपर्याय है, जो अति सूक्ष्म है और षड्गुण हानि-वृद्धिरूप है । जीव की भी जो स्वभावपर्याय होती है, वह भी परनिरपेक्ष ही होती है । इतना अवश्य है कि वह परनिरपेक्ष इसलिए कहलाती है, क्योंकि एक तो वह स्वभाव के अवलम्बन से उत्पन्न होती है, दूसरे उसमें भी निमित्त अविवक्षित रहता है । अविवक्षित कहो या गौण कहो दोनों का अर्थ एक ही है । आगे पूर्वपक्ष ने उक्त गाथाओं में पठित ज्ञान को लक्ष्य में लेकर जो कुछ कथन किया है, वह पूरी तरह से आगमानुकूल न होने पर भी, प्रकृत में अनुपयोगी होने से उसके विषय में हम यहां कुछ नहीं लिख रहे हैं। __ शंका ४, के दूसरे दौर की समीक्षा का समाधान समीक्षक ने व्यवहारधर्म निश्चयधर्म का साधक है या नहीं, यह शंका उपस्थित करके दूसरे दौर में व्यवहारधर्म निश्चयधर्म का साधक है, इसके समर्थन में जितने भी प्रमाण उपस्थित किये हैं, वे सब असद्भूत व्यवहारनय से ही उपस्थित किये हैं। उससे निश्चयधर्म की उत्पत्ति हो इसे परमार्थ से नहीं कहा जा सकता। इसी बात को स्पष्ट करते हुए हमने कई प्रमाण दिये हैं। उनमें एक प्रमाण नयचक्र का भी है । वह प्रमाण इसप्रकार है - ववहारदो बंधो मोक्खो जम्हा संहावसंजुत्तो। तम्हा 'कुरु तं गउणं सहावमाराहणाकाले ॥ ७७॥ उसका अर्थ हमने यह किया था कि व्यवहार से बन्ध होता है और स्वभाव का आश्रय लेने से मोक्ष होता है । इसलिए स्वभाव की आराधना के काल में अर्थात् मोक्षमार्ग में व्यवहार को गौण करो।
SR No.010316
Book TitleJain Tattva Samiksha ka Samadhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages253
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy