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________________ १८८ कि " एक अखण्ड पर्याय में निवृत्ति तथा प्रवृत्ति (राग) दोनों अंश सम्मिलित हैं, श्रतः उससे आस्रव-बन्ध भी हैं और संवर- निर्जरा भी है ।" (त. चर्चा पृ. ११०) सो यह कथन इतना भ्रामक है कि उससे यही फलित होता है कि जिस प्रकार राग आस्रव और बन्ध का कारण है, उसीप्रकार वीतराग भाव भी श्रास्रव और बन्ध का कारण है। तथा जिसप्रकार वीतराग भाव संवर और निर्जरा का कारण है, उसीप्रकार रागभाव भी संवर- निर्जरा का कारण है, क्योंकि उसने ऐसे सामान्य शब्द को रखकर एक अपेक्षा से उसी बात को स्वीकार किया है, जिसका हमने यहां इसी धनुच्छेद में निर्देश किया है । श्रन्यथा उसको यह लिखना चाहिये था कि उस पर्याय में जितना प्रवृत्तिरूप अंश है, वह परमार्थ से आसव-बन्ध का कारण है और जितना निवृत्तिरूप श्रंश है, उतना संवर और निर्जरा का कारण है । वह पुण्यभूत जीवदया भिन्न व्यवहारधर्मरूप जीवदया को संवरनिर्जरा और मोक्ष का कारण भले ही माने, परन्तु वह प्रवृत्तिरूप अंश होने के कारण संवर- निर्जरा और मोक्ष का कारण परमार्थ से त्रिकाल में नहीं हो सकता । दूसरे पुण्यरूप जीवदया से भिन्न व्यवहारधर्मरूप जीवदया कोई होती है - ऐसा ग्रागम भी नहीं है । जीवों में होनेवाली प्रदया का प्रभाव ही जीवदया है, ये दो नहीं, क्योंकि प्रभाव भावान्तरस्वभाव होता है, ऐसा नियम है । यहां लौकिक जीवदया विवक्षित नहीं । (३) समीक्षक क्या मानता है, इसका उसने इस समीक्षा में जैसा स्पष्टीकरण किया है, वैसा स्पष्टीकरण पूर्वपक्ष द्वारा तीन दौरों में कहीं नहीं किया गया । यदि पूर्वपक्ष ऐसा स्पष्टीकरण कर देता तो हमें कुछ पागल कुत्तों ने नहीं काटा है, जिससे कि हम पूर्वपक्ष से सहमत न होते । फिर भी समीक्षक जीवदया से भिन्न व्यवहारधर्मरूप जीवदया को संतर, निर्जरा और मोक्ष का कारण मानता ही है, जो मात्र संवर, निर्जरा और मोक्ष का कारण न होकर परमार्थ से श्रास्रव - चन्ध का ही कारण है; क्योंकि उसे आस्रव और बन्ध रूप ही ग्रागम । इसलिए हमारा लिखना उसके द्वारा किसी प्रकार से भी बाधित नही होता । स्वीकार करता है (४) वह लिखता है कि वह " पुण्य ( शुभराग ) भावरूप दया को मोक्ष का कारण मानना जीवदया से भिन्न व्यवहारधर्म चाहिये था, किन्तु वह झमेले तो है ही इसलिए कभी कुछ लिखता है और कभी कुछ। और जब सामने कठिनाई उपस्थित हो जाती है तो अपने अभिप्राय को बदलकर ऐसा लिखने लगता है कि यह हमारा श्राशय नहीं था । इसके लिये हम क्या करे । ही नहीं है" स. पृ. २५८ ( यदि यह बात सच है तो स. पू. २५७) रूप जीवदया को संवर - निर्जरा और मोक्ष का कारण नहीं लिखना (५) इस अनुच्छेद में वह लिखता है कि " पूर्वपक्ष तो पुण्यरूप जीवदया से पृथक् जीव के शुद्ध स्वभावभूत निश्चय धर्म के रूप में इसमें काररणभूत व्यवहारधर्म के रूप में ही जीवदया को धर्मरूप स्वीकार करता है ।" सो उसके इस वक्तव्य से ऐसा स्पष्ट ज्ञात होता है कि वह स्वभावभूत निश्चयधर्म और व्यवहारधर्मरूप जीवदया को एकसमान धर्मरूप स्वीकार करता है, किन्तु उसका ऐसा लिखना ही प्रापत्ति योग्य है । कहां निश्चयधर्म और कहां व्यवहारधर्म, दोनों को एक समान
SR No.010316
Book TitleJain Tattva Samiksha ka Samadhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages253
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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