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________________ १८७ रत्तो बंधदि कम्मं मुंचदि कम्मं विरागसंपत्तो । एसो जिगोवदे सो तम्हा कम्मेसु मा रज्ज ॥१५०।। समयसार पुरुषार्थसिद्धयुपाय में जो प्राचार्य अमृतचन्द्र देव ने असंयत सम्यग्दृष्टि प्रादि गुणस्थानों में "येनांशन विशुद्धिः" इत्यादि तीन एलोक लिखे हैं, उनमें यह बात स्पप्ट कही गई है कि जितने अंश में राग की हानि है, उतने अंश में उसके वन्ध नहीं है । विशुद्धि प्रात्मस्वभाव को मूचित करती है और निज स्वरूप की प्राप्ति वन्ध का कारण नहीं होती। साथ ही वहां यह भी कहा गया है कि जितने अंश में रांग है, उतना उसके बन्ध अवश्य है, क्योंकि वह संयोगलक्षी परिणाम को सूचित करता है, इसलिए वह स्वयं वन्धस्वरूप होने से वन्ध का कारण भी है। आगे इस प्रकरण में उसने अन्य जितने प्रमाण दिए हैं, वे सव विविधरुप को लिए हुए हैं। परन्तु उनका आशय एक यह है कि उन सब प्रमाणों को जीवदया के समर्थन में मानता है। अन्यथा उसे जीवदया के समर्थन में उन प्रमाणों को नहीं उपस्थित करना चाहिये था, जिनसे वीतरागता का समर्थन होता है। अपने तृतीय दौर के प्रारम्भ में हमने उपसंहार त. च. पृ. ११०-१११ में जिन पांच अनुच्छेदों का उल्लेख किया है और उन पर स. पृ. २५६-२५७ में जो पुनः प्रतिशंकायें उपस्थित की हैं उनका समाधान इसप्रकार है:- . प्रतिशंकाओं का समाधान : (१) हमने अनुच्छेद १ में लिखा था कि "प्रकृत में मूल प्रश्न परदया को ध्यान में रखकर ही है।" इसपर प्रतिशंका करते हुए समीक्षक का कहना है कि वह प्रश्न "परदया अर्थात् पुण्यभावरूप जीवदया को ध्यान में रखकर नहीं है, अपितु सामान्यरूप से जीवदया को ध्यान में रखकर ही हैं ।" सो इसका समाधान यह है कि यदि वह जीवदया को सामान्य रूप से स्वीकार करके उसका अर्थ हमारे लिखे अनुसार परदया और स्वदया रूप स्वीकार कर लेता है तो एक प्रकार से उसकी हानि ही है, क्योंकि वह पुण्यरूप शुभभाव को भी मोक्ष का साधकतम कारण मानता है और उससे संवर-निर्जरा भी मानता है। सो जीवदया का यह अर्थ करने से उसकी हानि ही है। हमने जो जीवदया का अर्थ परदया करके उत्तर दिया था, वह यथार्थ है । सामान्य व्यक्ति भी यह जानता है कि जीवदया का अर्थ जीवों पर दया करनी चाहिये, यही होता है। तीन दौर तक उसने स्वयं यह सवाल नहीं उठाया कि जीवदया से हम परदया और स्वदया दोनों को ग्रहण करते हैं, किन्तु जय हमने उपसंहार करते हुए जीवदया के ये दोनों अर्थ किये, तव वह अपनी समीक्षा में हमारे अर्थ को स्वीकार करके यह लिखने लगा कि जीवदया पुण्यवन्ध का भी कारण है और संवर-निर्जरा का भी कारण है । धन्य है समीक्षक की यह चतुराई। (२) पूर्वपक्ष ने द्वितीय दौर में जो २० प्रमाण दिये हैं, उनका अर्थ मात्र लिसने के वाद यह कहीं नहीं लिखा कि हम जीवदया से स्वभाव को भी ग्रहण करते हैं। इतना अवश्य लिसा
SR No.010316
Book TitleJain Tattva Samiksha ka Samadhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages253
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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