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________________ १८६ धर्म मानना ठीक नहीं है । वह वहाने चाहे जितने करे, परन्तु वह व्यवहारधर्म को निश्चयधर्म के समान ही धर्म मनवाना चाहता है । पूर्वपक्ष से हमारा मूल विवाद भी इसी विषय में प्रारम्भ से चला प्रा रहा है। जहां निश्चय धर्म संसार में उत्पन्न होकर भी मोक्ष में भी पाया 'जाता है, वहाँ पराश्रित व्यवहारधर्मे छठवें गुणस्थान तक ही सम्भव है । आगे ध्यान की भूमिका होने से विकल्परूप कषाय का सद्भाव छठवें गुणस्थान के आगे भले पाया जाय, परन्तु विकल्परूप व्यवहारधर्म का वहां प्रभाव ही रहता है । समीक्षक का कहना है कि व्यवहारधर्म परम्परा से मोक्ष का कारण है, सो यह प्रारोपित उपचरित कथन है। इससे साक्षात् संवर, निर्जरा और मोक्ष का कारण कौन इसका समर्थन नहीं होता । उसने अपनी मति से अन्य कथन किया है, प्रयोजनीय न होने से उसकी हमने उपेक्षा कर दी है । तीसरे दौर पर की गई शंकाओं का पुनः समाधान (१) त चर्चा पृ. १११ में हमने जो परमात्मप्रकाश गाथा ७१ के आधार पर धर्म पद का अर्थ शुभभाव -- किया है, उसमें केवल पुण्यरूप दया का ही अन्तर्भाव नहीं होता, अपितु व्यवहारधर्म रूप दयाभाव मादि का भी अन्तर्भाव हो जाता है, क्योंकि पुण्यभाव रूप दया और व्यवहारधर्मरूप दया में कोई फरक नहीं है, दोनों एक ही हैं। साथ ही पांचों व्रतों आदि का भी अन्तर्भाव हो जाता है । · (२) आगे हमारे त. च. पृ. १११ के कथन पर टिप्पणी करते हुए समीक्षक ने जो यह लिखा है कि "उसे समझना चाहिये था कि परजीवों की दया का विकल्प सम्यग्दृष्टियों और मुनियों का पहले किए गए विवेचन के अनुसार केवल पुण्यभावरूप जीवदया के रूप में न होकर व्यवहारधर्म रूप जीवदया के रूप में ही होता है ।" सो उसका यह कथन केवल भ्रम उत्पन्न करने के लिए ही है, क्योंकि सम्यग्दृष्टि के पुण्यभावरूप जीवदया से भिन्न व्यवहारधर्मरूप जीवदया कोई दूसरा परिणाम नहीं है, क्योंकि मिध्यादृष्टि के श्रागमानुसार जब शुभभाव होता ही नहीं, कारण कि 'अध्यात्म आगम में प्रारम्भ के तीन गुणस्थानों में तारतम्यभाव से केवल अशुभ परिणाम का ही प्रतिपादन किया गया है । यद्यपि मिथ्यादृष्टि के पुण्यभाव होता है, इसमें संदेह नहीं और सम्यग्दृष्टि के भी व्यवहारषर्मरूप पुण्यभाव होता है, इसमें भी सन्देह नहीं; परन्तु दोनों ही पुण्यभाव परमार्थ से श्रात्रव और बन्ध के हो कारण होते हैं, संवर-निर्जरा के कारण नहीं । इतना अवश्य है कि मोक्षमार्मी के वह व्यवहार से परम्परागत मोक्ष का कारणं कहा जाता है । (३) हमने त. च. पू. ११२ पर जो समीक्षक के द्वारा उपस्थित किये गये विविध प्रमाणों को लक्ष्य में रखकर टिप्पणी की है, वह उसके कथनानुसार मिथ्यादृष्टि के पुण्यभाव रूप जीवदया को ध्यान में रखकर ही की है । यह निष्कर्ष उसने कैसे निकाल लिया ? जब कि उसने जितने भी प्रमाण दिये हैं, उनमें बहुत से प्रमाण ऐसे भी हैं, जो गृहस्थधर्म और मुनिधर्म को ध्यान रखकर संग्रहीत किये गये हैं । अतः जितना भी व्यवहारधर्म है, वह स्वयं पराश्रितभाव होने से परमार्थ से बन्धरूप तो है ही, श्रात्रव-बन्ध का भी काररण है ।
SR No.010316
Book TitleJain Tattva Samiksha ka Samadhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages253
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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