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________________ १८२ विशेष जानना चाहिये कि समीक्षक ने मनोगुप्ति आदि का जो स्वरूप निर्देश किया है, वह ठीक नहीं है, क्योंकि मनोगुप्ति प्रादि सम्यग्दृष्टि संयमी के ही होती हैं । आगे प्रकरण के बाहर समीक्षक ने जो जीव की भाववती और क्रियावती शक्तियों के विपय में लिखा है, वह प्रकरण बाह्य होने से यहाँ उनके विषय में हम कुछ नहीं लिख रहे हैं। . व्यवहारधर्म और दया: - ___जो गृहस्थ सम्यग्दर्शनपूर्वक अहिंसादि पांच अणुव्रतों को गुरु की साक्षीपूर्वक धारण करता है, उसके व्यवहार धर्म के साथ दयारूप परिणाम सदा ही रहते हैं। वह संकल्पी हिंसा का तो त्रियोग से त्यागी होता ही है, अनर्थदण्डरूप प्रवृत्ति भी उसके नहीं पायी जाती । वह आत्मा के छन्दस्थानीय सम्यकदेव, गुरु और जिनवाणी की उपासना में सदा सावधान रहता है । ऐसे गृहस्थ के ही व्यवहार धर्म के साथ दयारूप परिणाम पाये जाते हैं । इसके सिवाय समीक्षक ने अपने मानसिक व्यायामपूर्वक जो कुछ भी लिखा है, वह सब उसकी कल्पना मात्र है। लौकिक दृष्टि से कुछ भी कहा जाय यह दूसरी बात है। .....यहां पर समीक्षक ने द्रव्यसंग्रह गाथा ४५ को उद्धृत कर जो कुछ लिखा है, उसके विपय में मुझे इतना ही लिखना है कि सम्यग्दृष्टि व्रती गृहस्थ के अदया की निवृत्ति ही शुभकर्म में प्रवृत्तिरूप व्यवहारधर्म है । वह मोक्षमार्ग को लक्ष्य में रखकर शुभ प्रवृत्तिरूप क्रिया होती है । इसमें मन, वचन और काय इन तीनों द्वारा की गई क्रिया का समावेश हो जाता है । यह सरल भाषा में व्यवहार धर्म का स्पष्टीकरण है। __आगे समीक्षक ने जो पा. वीरसेन द्वारा उल्लिखित "सुह-सद्ध परिणामेहि" प्रादि कथन का जो स्पष्टीकरण किया है, आगम के अनुसार वह ठीक नहीं है, किन्तु यहां पर ज्ञानी की सविकल्प अवस्था को शुभ पद द्वारा ग्रहण किया गया है, क्योंकि उस काल में ज्ञानी के स्वभावपरिणति का नियम से सद्भाव पाया जाता है, जो स्वभाव परिणति नियम से कर्मक्षय का हेतु है, किन्तु इस कथन में इतना विशेष जानना चाहिये कि यहां स्वभाव परिणति को गौणकर शुभ परिणति की मुख्यता से उसे ही उपचार से कर्मक्षय का हेतु कहा गया है । यह उक्त वचन में आये हुए "शुभ" पद का स्पष्टीकरण है। अब रह गया शुद्ध पद, सो इस पद द्वारा निर्विकल्प अवस्था का मुख्यतया कथन किया गया है, क्योंकि इस अवस्था में ज्ञानी का उपयोग भी स्वभाव को ही अनुभवता है और परिणति भी स्वभावरूप ही वर्तती है । इस प्रकार प्रा. वीरसेन ने 'शुद्ध परिणामों से' कर्मक्षय कहा है, उसका यह आगमानुसार सम्यक् खुलासा है, जो स्वयं प्रा. वीरसेन को भी इष्ट था, अन्यथा 'शुभ' पद के साथ वे शुद्धपद नहीं लगाते । आगे स. पृ. २४५ में समीक्षक ने १२ वें गुणस्थान को ख्याल में रखकर जो शंका उपस्थित की है, उस सम्बन्ध में इतना ही लिखना पर्याप्त है कि १२ वें गुणस्थान के प्रथम समय में न तो रत्नत्रय की पूर्णता ही हुई है और न ही ज्ञानावरणादि कर्मों के क्षय के अनुकूल ध्यान की भूमिका
SR No.010316
Book TitleJain Tattva Samiksha ka Samadhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages253
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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