SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 219
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १८१ (ग) समीक्षक ने सातवें गुणस्थान में प्रत्याख्यानावरण चतुष्क का क्षयोपशम लिखा है. जव कि पांचवें गुणस्थान के अन्तिम समय में ही प्रत्याख्यानावरण चतुष्क की उक्त नय की अपेक्षा उदयव्युच्छिति हो जाती है । वहाँ उदय किसका रहता है और लिखा जाता तो ही यह कथन समीचीन माना जाता। (घ) समीक्षक का कहना है कि"छठवें और सातवें इन दोनों गुणस्थानों में झूलते हुए" उस जीव में यदि सप्तम गुणस्थान से पूर्व ही दर्शनमोहनीय कर्म की उक्त तीन और चारित्रमोहनीय कर्म के प्रथम भेद अनन्तानुवंधी कपाय की उक्त चार इन सात प्रकृतियों का उपशम या क्षय हो चुका हो अथवा सप्तम गुणस्थान में ही उनका उपशम या क्षय हो जावे तो उसके पश्चात् वह जीव प्रात्मसुन्मुखतारूप करणलब्धि का सप्तम, अष्टम और नवम गुणस्थानों में क्रमशः अधकरण और अनिवृत्ति. करण के रूप में और भी विशेष उत्कर्ष प्राप्त कर लेता है आदि।" यहां यह स्पष्ट करना है कि जो पूर्वपक्ष की यह मान्यता है कि "सप्तम गुणस्थान के पूर्व यदि दर्शनमोहनीय की तीन और चारित्र मोहनीय की अनन्तानुबंधी का उपशम या क्षय न हुना हो तो सातवे में उनका उपशम या क्षय होता है" यह विचारणीय है, क्योंकि उन प्रकृतियों का क्षय तो सातवें में भी होता है, पर उन प्रकृतियों का उपशम सातवें में भी होता है यह लिखना ठीक नहीं है, क्योंकि दर्शनमोहनीय की तीन प्रकृतियों का उपशम तो मिथ्यात्व गुणस्थान में ही हो जाता है और उसके उदय का अभाव होने पर ही चौथे, पांचवें या सातवें गुणस्थान की प्राप्ति होती है । यदि अवति है तो चौथे की, यदि मिथ्यादष्टि व्रति श्रावक है तो पांचवें की और यदि द्रव्यलिंगी मुनि है तो सातवे की प्राप्ति होती है । और इन जीवों के क्रम से अनन्तानुबंधी चतुष्क, इसके साथ अप्रत्याख्यानावरण चतुष्क ओर इनके साथ प्रत्याख्यानावरण चतुष्क का नियम से उदयाभाव रहता है। दूसरी वात यह है कि एक तो अनन्तानुवंधो चतुष्क का अन्तरकरण उपशम होता नहीं, दूसरी इसका उदयाभाव ही उपशम कहलाता है, पर ऐसा जीव उपशम श्रेणि पर या तो क्षायिक सम्यग्दृष्टि चढ़ता है या द्वितीयोपशम सम्यग्दृष्टि चढ़ता है । और द्वितीयोपशम की प्राप्ति क्षयोपशम सम्यक्त्वपूर्वक होती है। ऐमा जीव अनन्तानुबंधी चतुष्क की विसंयोजना करता है और दर्शन मोहनीय की तीनों प्रकृतियों का उपशम करता है, तभी वह उपशम श्रेरिण पर चढ़ने का अधिकारी होता हैं । व्यवहार धर्म के विषय में स्पष्टीकरण : न केवल दयारूप शुभ प्रवृत्ति का नाम व्यवहारधर्म है और न ही उदयरूप संकली पापमय अशुभ प्रवृत्तियों से मनोगुप्ति, वचनगुप्ति और कायगुप्ति के रूप में सर्वथा निवृत्ति पूर्वक की जानेवाली दयारूप पुण्यमय शुभ प्रवृत्ति का नाम व्यवहारधर्म है, क्योंकि एसे परिणाम संजी पर्याप्तक पंचेन्द्रिय प्रायः सभी जीवों के होते रहते हैं। व्यवहारधर्म मात्र मोक्षमार्गी के ही होता है, ऐसा आगम का नियम है। उसमें भी जो मिथ्याष्टि संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्त जीव मोक्षमार्ग के अनुकूल प्रवृत्ति करने में सावधान होता है, उसके भी उपचार से व्यवहारधर्म कहा जाता है। यहां इतना
SR No.010316
Book TitleJain Tattva Samiksha ka Samadhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages253
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy