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________________ १०० निर्जरास्वरूप ही हो सकती है । यदि समीक्षक उसे पुण्यवन्ध का विशेष कारण कहे तो इसमें प्रागम से कोई आपत्ति नहीं पाती, क्योकि जितना भी शुभरूप भी रागांश है, वह एकमात्र वन्ध का ही कारण है। अभव्य व्यवहारधर्म के अधिकारी नहीं :- नियम यह है कि जिसने निश्चयधर्म की प्राप्ति की है, उसी के शुभोपयोगरूप परिणाम को ध्यवहारधर्म कहते हैं. अन्य के नहीं। मिथ्याप्टि के जो व्यवहारधर्म कहा जाता है, वह लौकिकदृष्टि से ही कहा जाता है । आगमिक सुनिश्चित व्याख्या के अनुसार नहीं । अज्ञानी अभव्य का धर्म भोग के निमित्त होता है, इसलिये वह परमार्थ से अधर्म ही है । लौकिक दृष्टि से उसे व्यवहारधर्म कहना हो तो भले कहो । निश्चय धर्म निश्चय धर्म सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्रचारित्ररूप स्वभाव धर्म है । उसकी प्राप्ति भव्य जीव के अपने ज्ञायक स्वभाव के अवलम्बन से तन्मय होने पर होती है, ऐसा नियम है। इसमें भी सर्वप्रथम जिसने गृहीत मिथ्यात्व को बुद्धिपूर्वक छोड़ दिया है ऐसे जीव के क्षयोपशम, विशुद्धि और देशनालब्धिपूर्वक प्रायोग्यलब्धि को प्राप्त कर जब यह जीव स्वभाव के पालम्बन से करपलब्धि के सन्मुख होता है, तब अनिवृत्तिकरण लब्धि के काल में मिथ्यात्व का या मिथ्यात्व आदि दर्शनमोहनीय की दो तीन प्रकृत्तियों का अन्तरकरणपूर्वक उपशम करके करणलब्धि के समाप्त होने पर उसके स्वभावंभूत सम्यक्त्वपर्याय का उदय होता है । यतः इसके सम्यक्त्वप्राप्ति के प्रथम समय में ही अनन्तानुबंधी चतुष्टय का अनुदयरूप उपशम नियम से होता है, अतः उसके प्रयोग द्वारा अपने प्रात्मस्वभाव में स्थितिरूप परिणति का भी उदय हो जाता है । इसीलिये समयसार आदि प्रवचनों में परनिरपेक्ष आत्मानुभूति को सम्यग्दर्शन कहा गया है। . (क) आगम में दया शब्द परदया के अर्थ में भी आता है और वीतरागभाव के अर्थ में भी आता है । यहाँ जीवदया को स्वदयारूप निश्चयधर्म कहना प्रयोजन के अनुसार है। यह समीक्षक ही जाने कि वह किस अर्थ में जीवदया को निश्चयधर्म कह रहा है - स्वदया के अर्थ में या परदया के अर्थ में प्रतिशंका २ में उस पक्ष ने जितने भी प्रमाण दिये हैं, वे सब मिले-जुले प्रमाण हैं । उनसे जीवदया पद से पूर्वपक्ष को क्या अभीष्ट है, यह पता नहीं लगता। यहाँ अवश्य ही समीक्षक यह तो लिखता है कि लीवदया निश्चय धर्मरूप भी होती है, पर वह जीव पद से स्वजीव गृहीत है या परजीव, यह स्पष्ट नहीं करता । अस्तु, उसका अपना विश्लेपण है, उसके लिये वह स्वयं जिम्मेदार है, आगम नहीं। (ख) समीक्षक ने तो पांच गुणस्थान में जो अप्रत्याख्यानावरण चतुष्क का क्षयोपशम लिखा है, वह ठीक होकर भी इसीलिये ठीक नहीं; क्योंकि क्षयोपशम में देशघाति स्पर्धकों का उदय भी विवक्षित रहता है, जब कि चौथे गुणस्थान के अन्तिम समय में ही अप्रत्याख्यानावरण चतुष्क की उत्पादानुच्छेदनय की अपेक्षा उदयव्युच्छित्ति हो जाती है।
SR No.010316
Book TitleJain Tattva Samiksha ka Samadhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages253
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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