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________________ १६८ यावत्पाकमुपैति कर्मविरतिर्ज्ञानस्य सम्यङ् न सा । कर्म - ज्ञानसमुच्चयोsपि विहितस्तावन्न काचित्क्षतिः ॥ किन्त्वत्रापि समुल्लसत्यवशतो यत्कर्म बन्धाय तत् । मोक्षाय स्थितमेकमेव परमं ज्ञानं विमुक्तं स्वतः ॥ ११० ॥ जबतक ज्ञान की कर्म विरति भलीप्रकार परिपूर्णता को प्राप्त नहीं होती, तबतक कर्म और ज्ञान का समुच्चय शास्त्र में कहा है । उसके एक साथ रहने में कोई भी क्षति या विरोध नहीं है | यहाँ इतना विशेष जानना चाहिये कि आत्मा में अवशपने जो कर्म प्रगट होता है, वह तो वन्ध का कारण है और जो एक परम ज्ञान है, वह एक ही मोक्ष का कारण है जो कि स्वतः विमुक्त है अर्थात् सर्वप्रकार के भेदरूप और उपचार रूप परभावों से भिन्न है । ११० । तात्पर्य यह है कि यथाख्यात चारित्र के प्राप्त होने के पूर्व तक सम्यग्दष्टि की दो धारायें रहती हैं. - कर्मधारा और ज्ञानधारा । उनमें कर्मधारा अपना कार्य करती है और ज्ञानधारा अपना कार्य । आगे जितने अंश में ज्ञानधारा में प्रकर्ष होता जाता है, उतने अंश में कर्मधारा का स्वयं नाश होता जाता है । यहाँ ज्ञानधारा का अर्थ है स्वयं को परनिरपेक्ष ज्ञानस्वरूप अनुभवना । यह परनिरपेक्ष होने से शुद्ध है । अन्य सव कर्मधारा है । शेष सब कथन उपचार मात्र हैं, क्योंकि कर्मधारा शुभाशुभ परिणति मात्र है और ज्ञानधारा परनिरपेक्ष प्रभेद विवक्षा में स्वयं ग्रात्मा है और भेद विवक्षा में स्वभावरूप अनुभवन मात्र है । कथन १३ (स. पृ. २२६) का समाधान : हमने त. च. पू. ६० पर यह लिखा था कि ' उपादान के अपने कार्य के सन्मुख होने पर निमित्त व्यवहार के योग्य बाह्य सामग्री मिलती ही है ।" किन्तु समीक्षक हमारे इस कथन को कार्यकारण की विडम्बना करनेवाला ही है, "उसकी सिद्धि करनेवाला नहीं" ऐसा लिखता है और उसकी पुष्टि मन्दबुद्धि शिष्य और अध्यापक को उपस्थित कर अपने मन के विकल्प के अनुसार निष्कप निकाल लेता है । किन्तु देखना यह है कि यदि अध्यापक का पढ़ाना निमित्त है और शिष्य का पढ़ना कार्य है तो शिष्य ने अपनी बुद्धि के अनुसार अवश्य पढ़ा है । तभी इन दोनों में निमित्तनैमित्तिक सम्बन्ध बनता है । अव यदि जैसा समीक्षक कहता है कि शिष्य ने नहीं पढ़ा ह और अन्य कार्य किया है तो अध्यापक पढ़ाने में निमित्त हैं यह कहना नहीं बनता । शिष्य ने उस समय जो कार्य किया उसके अनुरूप उपचार से निमित्त कोई अन्य होगा यह स्पष्ट है । यहां पर समीक्षक को यह स्पष्टरूप से समझ लेना चाहिये कि ऐसे मानसिक विकल्पों के आधार पर हमारे उक्त कथन का निरसन न होकर समर्थन ही होता है । ऐसे पाँच उदाहरणों को उपस्थित कर मालूम पड़ता है कि वह कार्य-कारण भाव की प्रकाट्यव्यवस्था को अभी तक नहीं स्वीकार करना चाहता । आगे अपनी मान्यता के रूप में उसने जो कुछ लिखा है, दूसरे शब्दों में तो वह वही है कि जिसे हमने त. च. पृ. ९० के उक्त कथन द्वारा स्पष्ट किया है । उसके कथन में हमें कोई भिन्नता नहीं दिखाई देती । रही बात निमित्त के सहयोग की, सो यह केवल शब्दजाल है या विकल्पों का
SR No.010316
Book TitleJain Tattva Samiksha ka Samadhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages253
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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