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________________ मानते हुए भी कार्यद्रव्य में भूताथरूप से उसकी सहायता से कार्य होता है यह कहते हुए नहीं अघाता। कथन नं. १२ (स. पृ. २२५) का समाधान : समीक्षक स पृ. ४ और ५ में वाह्य सामग्री को अयथार्थ कारण स्वयं स्वीकार कर पाया है। यहां भी वह इसे स्वीकार कर रहा है। ऐसी अवस्था में उसमें (वाह्यसामग्री में) अयथार्थ कारणता कल्पनारोपित या कथन मात्र है तो फिर कार्य में उसकी सहायता कल्पनारोपित याकथन .मात्र ही ठहरेगी, उसे वास्तविक कसे कहा जाय, इसका विचार स्वयं वह ही करे, क्योंकि कारणता तो अयथार्थ हो और उसकी सहायता भूतार्थ (यथार्थ) हो'- ये दो बातें नहीं बन सकती । . . आगे समीक्षक ने जो यह लिखा है कि "लोकोत्तर जन के लिये उसमें वाह्य सामग्री गौण कारण है और अंतरंग सामग्री मुख्य कारण है" सो “यद्वाह्यवस्तु" इत्यादि कारिका में उत्तरार्द्ध का उसकी अोर से जो उक्त अर्थ, किया गया है, उसका यह अर्थ नहीं है; क्योंकि उक्त कारिका में चाह्य कारण गौण है अर्थात् अविवक्षित है और अभ्यंतर कारण मुख्य है । इसका जो निष्कर्प : समीक्षक ने फलित किया है, वह नहीं है। उक्त कारिका में "अलम्" पद आया है, जिसका प्रकृतं में . मुख्य,अर्थ, न होकर पर्याप्त अर्थ होता है । इसलिये समन भाव से विचार करने पर उसका आशय • होता है कि जो अध्यात्मवृत्त जीव अपने उपयोग में वाह्य (पर) निरपेक्ष आत्मा का आलम्बन लेता है अर्थात् प्रात्मा को ध्येय बनाकर उसमें तन्मय होता है, उसके लिये आत्मा का आश्रय लेना पर्याप्त है, क्योंकि परनिरपेक्ष स्वभाव के आलम्बन से स्वभाव पर्याय की (अभेद विवक्षा में स्वभावभूत आत्मा को) प्राप्ति होती है । आचार्यदेव कु-दकुन्द का वचन भी है : पज्जाओ दुवियप्पो सपरावेवखो परणिरवेक्खो । पर्याय दो प्रकार की हैं - स्व- परसापेक्ष और परनिरपेक्ष अर्थात् स्वभावसापेक्ष । विचार करने पर विदित होता है कि समग्र रूप से मोक्षमार्गी बनने की कला उक्त कारिका में गभित है । मिथ्यादृष्टि जीव यदि सम्यग्दृष्टि बनता है तो इसी मार्ग से, सम्यग्दृष्टि या मिध्यादृष्टि विरताविरत और अप्रमत्तसंयत वनता है तो इसी मार्ग से । प्रमत्त यदि अप्रमत्त बनता है तो इसी मार्ग से । यह स्वभाव पर्याय को प्राप्त करने की कला है। संसारी के मोक्षमार्गी और मोक्षमार्गी के आगे की भूमिका में जाने की कला क्या है - इसे ही प्राचार्यदेव ने उक्त गाथा के उत्तरार्द्ध द्वारा स्पष्ट कर दिया है। विज्ञेषु किमकिधकम् । प्रारम्भिक भूमिका में अध्यात्मवृत के सविकल्प दशा में भले ही बाह्म सामग्री उपचार से प्रयोजनीय रहे, पर वह उतनी ही मात्रा में उपचार से प्रयोजनीय होती है, जो उस भूमिका के अनुकूल होती है । इसी बात को ध्यान में रखकर आचायंवर्य अमृतचन्द्र देव एक कलश में कहते हैं
SR No.010316
Book TitleJain Tattva Samiksha ka Samadhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages253
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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