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________________ १६६ ताना-बाना, जवकि कालप्रत्यसत्तिवश वाह्य-वस्तु कार्य में उपचार से निमित्त मात्र कही जाती है । इसी बात को भट्टाकलंकदेव ने- . . . . . . . "मृदः स्वयं घटभवनपरिणामाभिमुख्ये सति दण्ड-चक्र-पौरुषेयप्रयत्नादि निमित्त मानं भवति ।" इन शब्दों द्वारा स्पष्ट किया है । .. समीक्षक को भय है कि हमारे कथनानुसार वाह्य निमित्त अकिंचित्कर ठहर जाता है, किन्तु यह भय निःसार हैं; क्योंकि जो बाह्य निमित्त है वह स्वयं गुण-पर्याय वाला द्रव्य है, इसलिए जिस समय उपादानभूत द्रव्य ने अपना कार्य किया, उसी समय बाह्य निमित्तभूत द्रव्य ने भी उपादान होकर अपना कार्य किया। इसलिये कोई भी द्रव्य अकिंचित्कर नहीं रहा, फिर भी एक के कार्य में दूसरे को उपचार से निमित्त इसलिए कहा जाता है कि निमित्तभूत द्रव्य के द्वारा उपादानभूत द्रव्य में विवक्षित कार्य की सिद्धि होती है । कहा भी है..... काद्या वस्तुनो भिन्नाः येन निश्चयसिद्धये । साध्यन्ते व्यवहारोऽसौ निश्चयस्तदभेद दृक् ।।-अनगारधर्मामृत . आगे पृ.. २२७ पर उसने जो यह लिखा है - "उत्तरपक्ष यदि अपने अनुभव पर दृष्टि डाले" आदि तो उसके उत्तरस्वरूप हम (उत्तरपक्ष) समीक्षक स्वामी समतभद्र की "बुद्धिपूर्वापेक्षायां" इत्यादि कारिका की ओर दृष्टिपात: करने का आग्रह करते हैं, तब निमित्त-नैमित्तिक के रूप में कार्यकारणभाव की सब आगमिक व्यवस्था.उसे आकुलता के बिना समझमें आ जायगी। नित्य उपादान द्रव्य योग्य रूप उपादान रहे और वह समर्थ उपादान की स्थिति में पहुंचे तो कार्य नहीं होता, अतः नित्य उपादान कार्यकारी नहीं रहा, इसलिये कार्य नहीं हुआ, ऐसा मानना योग्य है। उदाहरणार्थ भव्य हो और काललब्धि का योग न हो तो मोक्षमार्ग की जैसे सिद्धि नहीं होती, वैसे ही मन्दबुद्धि शिष्य के सम्बन्ध में भी समझ लेना चाहिये। . इन्द्र को ख्याल में रखकर धवला में यह प्रश्न उठाया गया है कि जिस समय भ. महावीर को केवलज्ञान की प्राप्ति हुई, उसी समय इन्द्र ने गौतम को क्यों नहीं लाकर खड़ा कर दिया? तो वहां यही उत्तर दिया गया गया है कि उस समय काललब्धि के अभाव में इन्द्र गौतम को लाने में असमर्थ था और जब काललब्धि आ गई तो उसी इन्द्र ने गौतम को लाकर भगवान के सामने उपस्थित कर दिया। भैया.! हमने तो कार्य-कारण भाव की रीढ़ को समझ लिया है। व्यर्थ ही आप प्रेरक नाम से उपचार से कहे गये निमित्त की सिद्धि के व्यामोह में पड़कर स्वयंसिद्ध निमित्त-नैमित्तिक भाव की कथनी को विडम्बनापूर्ण लिखकर अपने को उससे निमित्त-नैमित्तिक भाव के कथन से अनभिज्ञ न बनावें । निमित्त-नैमित्तिक भाव की व्यवस्थित परम्परा नियत कार्य-कारणभाव की संजीवनी बूटी है, इसका पान करें । जहाँ आगम साक्षी है, उसका अनुभव और तर्क उसके अनुकूल ही होते हैं, उसके विरुद्ध नहीं, इतना निश्चित समझे । हमारे लिये ही क्या, छद्मस्थ मुनि के लिये भी आगम ही चक्षु है।
SR No.010316
Book TitleJain Tattva Samiksha ka Samadhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages253
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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