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________________ १६६ है । इनमें एक सद्भूत व्यवहार है और दूसरा असदभूत व्यवहार है। प्राचार्यदेव तो यही है कि कर्ता कर्ता है और कर्म (कार्य) कम है। कर्ता ने कर्म को पैदा किया हो-ऐसा भी नहीं है, और कर्म कर्ता से हुया हो ऐसा भी नहीं है।" फिर भी यह व्यवहार तो होता ही है कि इस कार्य को इस कर्ता का जानना चाहिये या इस कर्ता का यह कार्य है। सम्यग्दृष्टि जीव, कोई किसी का नहीं होता इस तथ्य को जानते हुए राग के कारण यह पुत्र मेरा है - ऐसा व्यवहार करता है। परन्तु यहां संगोग का अर्थ ही यह है कि जो प्रनात्मीर हैं उनमें प्रात्मभाव का होना संयोग है। इसलिये पूर्वपक्ष ने यदि इसी प्रथं में संयोग शब्द का प्रयोग किया हो तो मुझे कुछ आपत्ति नहीं है। वैसे तो जहां हम रहते हैं, वहीं यही द्रव्य यति है. फिर भी उनमें यह मेरा- यह व्यवहार नहीं होता । इसलिये संयोग पद का हमने जो प्रर्य किया है, यह मागम सम्मत है । मूलाचार में "एगो में" इत्यादि गाथा में पाये हुए "सध्ये मनोगनालणा" पद में प्राय हुए "संयोग" पद का अर्थ करते हुए उसकी टीका में लिया है "अनारमनीनां प्रात्मगावः संयोगः" प्राशा है समीक्षक भी इसे स्वीकार करेगा। आगे गौणमुल्यभाव के विषय में जो समीक्षक ने लिखा है, सो टगे यदि उसका प्राशय मुख्यगौण से उपादेयअनुपादेय का है तो सम्यग्रप्टि कभी भी परमगाव ग्राही निश्यप को मनुपादेय रूप से गौण नहीं करता । लक्ष्य को सदा स्याल में रखता है। फथन नं. ११ (स. पृ. २२४) का समाधान : इस कार्य-कारण भाव के विपय में हम पहले ही स्पष्ट कर पाये हैं। यहां इतना अवश्य कहना है कि छद्मस्थ के प्रमाण ज्ञान भी विकल्प रूम होता है । कोई भी बाए निमित वस्तु का स्वरूप नहीं होता, मात्र कालप्रत्यासत्तिवम कार्य के समय 'अन्वय-व्यतिरक समधिगम्यो हिमायंकारणभाव, इस विपय के अनुसार अन्य में निमित्तता कल्पित कर ली है, इसलिये अन्य फो निमित कहना यह असद्भूत व्यवहार रूप एक विकल्प ही है, परमार्थ नहीं। रही उपादान को यान मी प्रत्येक पर्याय के बाद उसकी अविनाभावी दुमरी पर्याय होने का नियम है, जैसे वस्तु के स्वरूप में नित्यता सन्निहित है, उसीप्रकार एका पर्याय के बाद उसकी अविनाभावी मरी पर्याय का होना भी उसमें सन्निहित है। तथा उक्त दोनों पर्यायें द्रव्य की अपेक्षा सद्भूत हैं, इसलिये इन में रहने वाले अविनाभाव को देखकर ऐसा व्यवहार स्वयं हो जाता है कि इसके बाद यह पर्याय होगी। इसीलिये इसे सद्भूत व्यवहारनय का विषय कहते हैं ऐसा स्वरूप से जानना ही सम्पष्टि का लक्षण है। विशेप क्या संकेत करें। यह हमने जो लिखा है. वह खुलासा मात्र है। समीक्षक बाह्य सामग्री कार्यरूप परिणत नहीं होती, इसलिए उसे असदभूत पाहता है यह तो ठीक है, पर यहां इतना विशेप जानना चाहिये कि वह स्वरूप से कार्यरूप वस्तु में नहीं है, इसलिये भी असद्भूत है, और जब वह कार्य द्रव्य से अपने विशेष लक्षण की अपेक्षा सर्वथा भिन्न लक्षणवाली है तो सर्वथा भिन्न रहकर उसकी सहायता से कार्य होता है यह कहना असद क्यों नहीं हो जायगा। अर्थात् असत् ही ठहरेगा। आश्चर्य है कि फिर भी समीक्षक बाह्य वस्तु में कारणता को असदस्वरूप
SR No.010316
Book TitleJain Tattva Samiksha ka Samadhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages253
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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