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________________ १४०' सम्यक्त्व आदि के काल में यह स्थिति वन जाती है, इसमें कोई बाधा नहीं आती है, क्योंकि सम्यक्त्व आदि स्वभाव पर्याय है, इसलिए पर में इष्टानिष्ट बुद्धि छोड़कर उपयोग में स्वभाव के आलम्बन से ही होती है । प्रत्येक द्रव्य में कार्य करने की जो स्वाभाविक योग्यता है उसके अनुरूप जब उपादान की भूमिका बनती है तब उसके अनुसार द्रव्य ( पर्याय की योग्यता के अनुसार ) स्वयं ही उस कार्यरूप परिणमता है । ( इसके लिये देखो समयसार गाथा ३७२ और उसकी श्रात्मख्याति टीका ।) अपनी स्वाभाविक तत्कालीन उपादान योग्यता के कारण ही प्रत्येक द्रव्य उत्पाद - व्ययरूप परिणमता है, पर के कारण नहीं, ऐसा निश्चय करना ही जिनागम है । समयसार में जो" न जातु रागादिनिमित्तभावम्" इत्यादि कलश आया है उससे भी यही भाव व्यक्त होता है कि पर की संगति को परमार्थ से सहायक मानना अपराध है, पर की संगति नहीं । संगति शब्द में यह अर्थ छिपा हुआ है । उसे अपने समर्थन में खींचकर उससे जैनदर्शन को ईश्वरवादी बनाना योग्य नहीं है । कथन नं. ९१ का समाधान :- इस कथन में समीक्षक ने त० च० पर के हमारे कथन का निषेध करते हुए यह लिखा है कि व्यवहारनय का विषय भी निश्चयनय के विषय की तरह अपने ढंग से वास्तविक ही है । वह आकाशकुसुम की तरह सर्वथा सत् नही है । इतना ही है कि व्यवहारनय का विषय निश्चयनय के विपय के समान सत्रूप नहीं है सो जव समीक्षक ही यह स्वीकार कर लेता है कि "वह निश्चयनय के विषय के समान सत्रूप नहीं है" तो इसका अर्थ ही यह हुआ कि जैसे कार्यरूप वस्तु में उपादान के गुण-धर्म पाये जाते हैं उसप्रकार वाह्य निमित्त के धर्म उस कार्यरूप वस्तु में नहीं पाये जाते । और जब कार्यरूप वस्तु में बाह्य निमित्त रूप वस्तु के धर्म नहीं ही पाये जाते तब उसकी सहायतारूप धर्म कार्यरूप वस्तु में नहीं पाया जायेगा और ऐसी अवस्था में कार्यरूप वस्तु मे सहायता रूप धर्म का प्रभाव ही रहेगा । इसलिए व्यवहारऩय का ( असद्व्यवहारनय का) विषय भी निश्चयनय के विषय की तरह अपने ढंग से वास्तविक ही है" यह कहना उपचरित. ही ठहर जाता है । हमने समयसार गाथा ५६ की आत्मख्याति टीका और मोक्षमार्गप्रकाशक पृ. २८७ और पृ. ३६९ के वस्तुस्थिति के समर्थन में जो प्रमाण दिये हैं उनका भी वही पूर्वोक्त ही आशय है । कथन नं. २ का समाधान :- इस कथन में समीक्षक ने पुद्गल द्रव्य के स्वतः सिद्ध परिणाम स्वभाव का समर्थन करते हुए "पुद्गल द्रव्य पर की अपेक्षा किये बिना स्वरूप से स्वयं परिणाम स्वभावी है, मेरे इस कथन को पूर्वोक्त कथन से विरुद्ध बतलाने की जो चेष्टा की है वह ठीक नहीं है, क्योंकि जिसमें जो द्रव्य-पर्याय शक्ति स्वतः सिद्ध होती है उसको वैसा होने के लिए पर की अपेक्षा की आवश्यकता नहीं पड़ा करती, यह अपने आप फलित हो जाता है । अन्यथा उसे स्वतः सिद्ध कहना अज्ञान होगा। जैसे प्रत्येक द्रव्य स्वतः सिद्ध है इसलिए वे परकी अपेक्षा के बिना स्वतः सिद्ध है, यह सिद्ध हो जाता है इसी प्रकार परिणाम स्वभाव भी स्वतः सिद्ध होता है, इसलिए
SR No.010316
Book TitleJain Tattva Samiksha ka Samadhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages253
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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