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________________ २४१ वह पर की अपेक्षा के बिना ही परिणमन करता है। इतना अवश्य है कि बाह्य में उसकी सिद्धि हम कालप्रत्यासत्तिवश उसी समय अवश्य ही रहने वाले क्रिया परिणामी या केवल परिणामी अन्य द्रव्य के माध्यम से करते हैं, इसलिए इस दृष्टि से आगम में बाह्य निमित्त की व्यवस्था है। कथन नं. ६३ का समाधान :- इस कथन में जो "स्वयं" पद का अर्थ "अपने पाप न करके" "अपनेरूप" किया है सो समीक्षक को "स्वयं" पद का यह अर्थ करते समय यह खवर नहीं रही कि दूसरे अर्थ के करने से निश्चय कथन की हत्या हो जायेगी, और ऐसा होने पर वस्तु स्वरूप से ध्रौव्य के समान, उत्पाद-व्ययरूप सिद्ध नहीं होगी, और ऐसी अवस्था में प्रत्येक वस्तु का अस्तित्व सर्वथा पराश्रित ही मानना पड़ेगा। यही तो ईश्वरवाद का जैनधर्म में प्रवेश कराना है। इससे मालूम पड़ता है कि समीक्षक ने जैनत्व का कपड़ा प्रोढ़कर जैनधर्म में ईश्वरवाद के समर्थन का बीड़ा उठा लिया है । नय दो हैं, दोनों नयों का अपना-अपना विषय है। निश्चयनय स्वरूप का कथन करनेवाला नय है और व्यवहारनय स्वरूप को गौरणकर पर की अपेक्षा कार्य की सिद्धि करता है । परन्तु पर की अपेक्षा किसी की सत्ता बनती नहीं, इसलिये निश्चयनय स्वभाव से पर का निषेधक बन जाता है. क्योंकि व्यवहारनय जैसा कथन करता है, वस्तु वैसी होती ही नहीं। उसका विषय कथन मात्र ठहरता है। कथन नं. ९४ का समाधान :- इस कथन में समीक्षक ने जितना कुछ लिखा है उसका निरसन कथन नं. ६३ में दिये गये हमारे वक्तव्य से हो जाता है। फिर भी यहां हम इतना उल्लेख कर देना चाहते हैं कि यदि विवक्षित वस्तु का कार्य उससे भिन्न परवस्तु की सहायता के बिना नहीं होगा तो वह परवस्तु भी अपने सहायतारूप कार्य को अन्य परवस्तु की सहायता के बिना नहीं कर सकेगी और वह अन्य परवस्तु भी अपने सहायतारूप कार्य को अपने से भिन्न अन्य वस्तु की सहायता के बिना नहीं कर सकेगी। इसप्रकार अनवस्था दोप के प्राप्त होने से परमार्थ से यही निर्णय करना उचित प्रतीत होता है कि प्रत्येक वस्तु अपने परिणाम स्वभाव के कारण स्वयं परिणमन करती है । उसे परमार्थ से अपने परिणमन में अन्य की सहायता की अपेक्षा नहीं पड़ती। कथन नं. ५ का समाधान :- इस कथन में जो निश्चय कथन को व्यवहार सापेक्ष लिखा है सो इसका उत्तर हम कयन नं. ६१ के और ६३ के समाधान में दे आये हैं, उसे ही यहाँ समझ लेना चाहिये । उसका आशय यह है कि निश्चयकथन पर निरपेक्ष ही होता है । व्यवहार से पर सापेक्षता कही जाती है । कथन नं. ६६ का समाधान :-इस कथन में समीक्षक हमारे द्वारा किये गये "स्वयं" . पद के अर्थ को ठीक नहीं मानते हुए.हम पर यह आपेक्षा करता है कि उसने "निरर्थक और आगम के विपरीत प्रतिपादन किया है । तत्त्व जिज्ञासुमो ! इस पर विचार करने की आवश्यकता है।" सो इस विषय में हमें इतना ही कहना है कि अन्त में समीक्षक ने हारकर "स्वय" पद का अर्थ करने के लिए तत्त्व जिज्ञासुओं के ऊपर छोड़ दिया है । लोक में कहा जाता है कि इस काम को
SR No.010316
Book TitleJain Tattva Samiksha ka Samadhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages253
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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