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________________ १३६ के साथ धर्मान्तर को ग्रहण करना प्रमाण का लक्षण है, विवक्षित धर्म के सिवाय अन्य धर्म का निषेध करना दुर्नय का लक्षण है, कारण कि इनको छोड़कर प्रमाणादि के अन्य लक्षण हो ही नहीं सकते। किन्तु यह सब-कथन प्रत्येक वस्तु के अस्ति-नास्ति, नित्य-अनित्य, एक-अनेक और तत्-प्रतत् आदि धर्मों को ध्यान में रखकर किया गया है। इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि कार्यकारण भाव, आधार-आधेयभाव आदि की अपेक्षा जहां दो वस्तुएँ विवक्षित. होती हैं, जैसे कुम्भकार को घट का निमित्त कर्ता कहना-और कुम्भ को उसका कार्य कहना आदि; वहाँ स्वभाव और परभाव की दृष्टि से जब विचार किया जाता है तब विवक्षित मिट्टी ही घट का परमार्थ से कर्ता और घट परिणाम से परिणत हुई मिट्टी ही उसका परमार्थ से कार्य ठहरता है। अपने योग और उपयोग परिणत कुम्भकार न तो घट का कर्ता ही ठहरता है और न घट उसका परमार्थ से कर्म ही ठहरता है। मात्र यह उपचार कंथन होने से असद्भूत व्यवहारनय से ही ऐसा कहा जाता है, इसलिये योग और उपयोग परिणत कुम्भकार घट कार्य के प्रति तत्वदृष्टया अकिंचित्कर होने से वह घट कार्य में किसी भी प्रकार से उसे सहायक कहना परमार्थ नहीं ठहरता । समीक्षक निश्चयनय और व्यवहारनय इन दोनों को परस्पर सापेक्ष भले ही लिखे, परन्तु यहाँ पर व्यवहारनय से क्या अभिप्रेत है इसे वह जानबूझ कर स्पष्ट नहीं करना चाहता, क्योंकि ऐसा करने से उसे अपने कथन की अपरिमित हानि होती हुई दिखाई देती है। अरे भाई ! कुम्भकार को घट का कर्ता असद्भूत व्यवहारनय से ही कहा गया है, सामान्य व्यवहारनय , से नहीं, क्योंकि कुम्भकार भिन्न वस्तु है और मिट्टी भिन्न वस्तु है। इन दोनों का एक दूसरे में अत्यन्ताभाव है। फिर भी कुम्भकार को निमित्त कर घट बना, यह कहना अज्ञानियों का अनादिरूढ़ लौकिक व्यवहार है जो ज्ञानमार्ग में हेय है। कालप्रत्यासत्तिवश या बाह्य व्याप्तिवश ही पागम में लौकिक व्यवहार को प्रयोजनवश स्थान दिया गया है। जैसा कि समयसार गाथा ५४ की आत्मख्याति टीका में इस वचन से भी स्पष्ट है "कुलालः कलशं करोत्यनुभवति चेति लोकानामनादिरूदोऽस्ति . तावदव्यवहारः।" .यहाँ यह शंका की जा सकती है कि पर में निमित्तता का तो यहां निपेध नहीं किया है, केवल पर में कर्तृत्व का ही निपेध किया है सो यह कहना भी ठीक नहीं है, क्योंकि वाह्य निमित्त में परमार्थ से निमित्तपने का निषेध हो जाता है। हम यह अच्छी तरह से जानते हैं कि चरणानुयोग शास्त्र और करणानुयोग शास्त्र एक अपेक्षा. निमित्त-नैमित्तिक भाव की दृष्टि से लिखे गये हैं, परन्तु वहाँ भी उनके लिखे जाने का प्रयोजन कालप्रत्यासत्ति को ध्यान में रखकर ही उनकी रचना की गई है । जैसे:-जिस.समय जिनके क्रोध भाव होता हैं उसी समय क्रोध कषाय कर्म का उदय भी रहता है और उसी समय क्रोध कषाय को निमित्त कर नये कर्म का बन्धं भी होता है। ऐसा कहीं भी नहीं देखा जाता कि क्रोध कषाय कर्म का उदय तो हो और. क्रोध पर्याय न हो। यह उपयोग की विशेषता है कि आत्मा में क्रोध पर्याय के होते हुए भी वह क्रोध को न अनुभवे - यह उपयोग की स्वतन्त्रता है।
SR No.010316
Book TitleJain Tattva Samiksha ka Samadhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages253
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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