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________________ १३५ समाधान: यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि "प्रकाश से अधिक परिणम वाला अन्य द्रव्य नहीं है, जहां परं आफाश स्थित है यह कहा जाय ।" वह सबसे अनन्त है, परन्तु धर्मादिक द्रव्यों का माकाशं अंधिकरण है यह व्यवहारनय की अपेक्षा कहा जाता है। एवंभूतनय की अपेक्षा तो सद द्रव्यं स्वप्रतिष्ठित ही हैं । कहा भी है-"आप कहां रहते हैं" अपने में । धर्मादिक द्रव्य लोकाकाश के बाहर नहीं हैं, इतना ही आधार-आधेय कल्पना से फलितार्थ लिया गया है। यह वस्तुस्थिति है। इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि कार्यकारण भाव के अर्थ में व्यवहारनय का कथन विकल्प की भूमिका में ही बनता है। व्यवहारनय से जो कहा जाता है वैसा.वस्तु का स्वरूप नहीं होता । इसीलिये निश्चयनय का कथन परनिरपेक्ष ही सिद्ध होता है और व्यवहारनय के कथन को परसापेक्ष कहने का अभिप्राय ही यह है कि वह मात्र विकल्प का ही विषय है। वस्तु के स्वरूप में परसापेक्षता स्वरूप से वनती ही नहीं। कथन ८७ का समाधान:-तच०पृ० ६१ पर हमने जो दूसरी आपत्ति उपस्थित की थी (गा० ११७ समयसार के उत्तरार्द्ध के सम्बन्ध में) सो वह वस्तुस्थिति को समझकर ही उपस्थित की थी । जव समीक्षक पुद्गल द्रव्य ही क्या, प्रत्येक द्रव्य को परिणाम स्वभावी स्वीकार कर लेता है तो उसे प्रत्येक द्रव्य परमार्थ से स्वयं परिणमता है यह भी स्वीकार कर लेना चाहिये । कोई भी द्रव्य जव परतः परिणाम स्वभावी होता ही नहीं, ऐसी अवस्था में उसने जो परतः परिणाम स्वभावी . न मानने पर व्रत के अभाव होने की आपत्ति दी है, वह प्रकृत में तर्कसंगत नहीं ज्ञात होती, क्योंकि कर्म और नोकर्मरूप निमित्तों की स्वीकृति केवल परमार्थ से प्रत्येक द्रव्य स्वतः परिणमन करता है, इस अर्थ की सिद्धि करने के लिए ही कही जाती है। जैसाकि अनगारधर्मामृत अ० १ में कहा भी है कर्नाद्या वस्तुनो भिन्ना येन निश्चयसिद्धये । साध्यन्ते व्यवहारोऽसौ निश्चयस्तदभेददृक् ।। यतः निश्चय की सिद्धि के लिए वस्तु से भिन्न कर्तादिक साधे जाते हैं, उसका नाम व्यवहार है। किन्तु निश्चयनय कर्तादिक वस्तु से अभिन्न है. यह दिखलाने वाला है। हमने समयसार गाथा ११६ पर अच्छी तरह से दृष्टिपात किया है। हम तो आपको इस संबंध में यही सलाह देवेंगे कि वह पूरी गाथा को अच्छी तरह से पढ़ लेवे। यदि वह पूरी गाथा को अच्छी तरह पढ़ते समय गाथा के उत्तरार्द्ध में आये हुए "जई" पद पर ध्यान दें तो उसे यह आपत्ति उपस्थित करने का अवसर ही नहीं आता, क्योंकि गांथा के उत्तरार्द्ध में यह स्पष्ट कहा गया है कि "ऐसी अवस्था में यह पुद्गल द्रव्य अपरिणामी ठहरेगा।" वह अवस्था क्या है ? इसी का पूर्वार्द्ध में "यदि" पद के द्वारा उल्लेख किया गया है। ___ इस प्रकार पूरी गाथा के अर्थ पर जब विचार करते हैं, तो उसका अर्थ यह होता है कि यदि जीव में पुद्गल द्रव्य कर्मरूप से स्वयं नहीं बंधा है और कर्मरूप से स्वयं नहीं परिणमता है तो यह पुद्गल द्रव्य उस अवस्था में अपरिणामी ठहरेगा।
SR No.010316
Book TitleJain Tattva Samiksha ka Samadhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages253
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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