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________________ 'में "स्वयं" पद का प्रयोग किया ही है और पुद्गल द्रव्य को स्वयं ही कर्मरूप परिणमनेवाला लिखा ही है, यथा - १३३ “यदि पुद्गलद्रव्यं जीवे स्वयमबद्ध सत्कर्मभावेन स्वयमेव न परिणमेत तदा तदपरिरंगाम्येव स्यात् " इसीप्रकार ११६ से ११६ गाथाओं में भी "स्वयं" पद का प्रयोग होने से पुद्गल स्वयं ही • श्रर्थात् अपने आप ही कर्मरूप से परिणमता है, यह सिद्ध हो जाता है, क्योंकि निश्चयनय से 'स्वाश्रितपने को सूचित करने के लिये "स्वंगमेव" पद का अर्थ होता है - "अपने आप ही " इसलिये हमने पूर्वपक्ष के कथन को विकृत करने का न तो प्रयत्न ही किया है और न हमारा ऐसा अभि'प्राय ही है । ** यद्यपि सांख्य पुरुष को अपरिणामी मानता है, किन्तु इन गाथाओं द्वारा सांख्य की उक्त मान्यताओं का निरक्षण तभी होता है जब पुद्गल द्रव्य के परिणाम स्वभाव को सिद्ध करने के अभि'प्राय से जीव उसे नहीं परिणमाता, किन्तु वह स्वयं ही अर्थात् अपने आप ही परिणामता है, यह बतलाकर ही स्वयं परिणाम स्वभावपने की सिद्धि की है । w ग्रहसयमेव हि परिणमदि कम्मभावेण पोग्गलं दव्वं । जीवो परिणामयदे कम्मं कम्मत्तमिदि मिच्छा ॥ ११६ ॥ समयसार फिर भी समीक्षक यह कहे कि पुद्गलों की कर्मरूप स्वाभाविक योग्यता को दिखलाने के लिये ही उक्त गाथा में "स्वयमेव" पद आया है, सो यह बात भी युक्तियुक्त नहीं है, क्योंकि उक्त दोनों गाथाओं में पुद्गल की कर्मरूप स्वाभाविक योग्यता को सूचित करने वाला स्वतंत्र पद न होने पर भी " स्वयमेव हि परिणमंदि" इस कथन से यह स्पष्ट हो जाता है कि पुद्गल में कर्मरूप परिणमन की स्वाभाविक योग्यता तो है ही, वह कर्मरूप भी स्वयं ही परिणमता है - यह सूचित हो जाता है । इसलिये उक्त गाथाओं में "स्वयं" पद मात्र पुद्गल के कर्मरूप परिणमन की स्वाभाविक योग्यता के अर्थ में न आकर, वह स्वयं ही कर्मरूप परिणमता है, यह सूचित करने के लिए ही आया है । अन्यथा "स्वयमेव परिणमदि" इस वाक्य में वर्तमान कालीन "परिणमदि" पद का कर्ता'कारक में प्रयोग ही नहीं किया गया होता। इस विषय में उसको एकान्त का आग्रह नहीं करना चाहिये । किन्तु अनेकान्त के सम्यक् स्वरूप को जानकर ऐसा ही निर्णय करना चाहिये कि पुद्गलद्रव्य कर्त्ता है और ज्ञानावरणादि कर्म हैं, दोनों स्वरूप मे स्वयं हैं, क्योंकि कर्त्ता का स्वरूप कर्म सापेक्ष नहीं होता, उसी तरह कर्म का स्वरूप भी कर्तृ सापेक्ष नहीं होता, क्योंकि इन दोनों को परस्पर सापेक्ष मानने पर दोनों के असत्व का प्रसंग आता है तथा कर्तापने का व्यवहार और कर्मपने का व्यवहार परस्पर निरपेक्ष भी नहीं होता, क्योंकि कर्म के निश्चयपूर्वक कर्त्ता का ज्ञान होता है तथा कर्त्ता के निश्चयपूर्वक कर्म का ज्ञान होता है । इस आधार पर यह अनेकान्त बनता है कि इन दोनों की सिद्धिं सापेक्षिक होती है, क्योंकि ऐसा व्यवहार है तथा ये दोनों अपेक्षा रहित हैं, क्योंकि इनका स्वरूप स्वयंसिद्ध है । जैसा कि अष्टसहस्री - कारिका ७५ के इस कथन से स्पष्ट हो जाता है
SR No.010316
Book TitleJain Tattva Samiksha ka Samadhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages253
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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