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________________ १३२ यदि जीव शुभाशुभ भावों का कर्म की सहायता से कर्ता होता तो प्रा० कुन्दकुन्द जैसे समर्थ आचार्य यह गाथा न लिखते - जं भावं सुहमसुहं करेदि प्रादा स तस्स खलु कत्ता । तं तस्स होदि कम्मं तो. तस्स वेदगो अप्पा ॥.१०२ ।। समयसार । शुभ या अशुभ जिस भाव को आत्मा करता है वह उसका निश्चय से कर्ता होता है और वह भाव उसका कर्म होता है, तथा वह आत्मा उसका भोक्ता होता है। इससे स्पष्ट हो जाता है कि निश्चयपक्ष में परद्रव्य स्वरूप पर की सहायता अपेक्षित नहीं हमा करती । अन्यथा उसे निश्चय कथन मानना मिथ्या हो जाता है। ... इस प्रकार यह निश्चय हो जाने पर कि वाह्य या आभ्यंतर निमित्त अन्य द्रव्य के कार्य में परमार्थ से संहायक नहीं होता । यह मात्र सामान्य व्यवहार न होकर असद्भूत व्यवहारं है, जिससे यह कहने में आता है कि वाह्य या आभ्यंतरं साधन अन्य द्रव्य के कार्य में सहायक होता है । समीक्षक ने इस कथन में "स्वयं" पद का जो पुद्गल स्कन्ध अपने रूप अर्थात् अपनी स्वाभाविक कर्मशक्ति के अनुरूप - कमरूप से अर्थ किया है सो उसका वह अर्थ करना दिशाभूल करने के सिवाय और कुछ भी नहीं है, क्योंकि - कर्मत्व परिणमन शक्तिवाले पुद्गलस्कन्ध पद का टीका में स्वयं उल्लेख रहने से "स्वयमेव" पद का पुद्गलस्कन्धों की कर्मरूप परिणति की स्वभावरूप योग्यता, अर्थ करना प्रकृत में कोई प्रयोजनीय प्रतीत नहीं होता। उसको यदि असद्भूत व्यवहारपक्ष का ही समर्थन करना इष्ट है तो निश्चयपक्ष का खण्डन करने से इष्ट प्रयोजन की सिद्धि होना असंभव है, क्योंकि निश्चयपक्ष यथास्थित वस्तुस्वरूप को सूचित करता है अतः असद्भूत व्यवहारपक्ष द्वारा उसका खण्डन नहीं किया जा सकता या अर्थ का विपर्यास करके आगम दूपित नहीं किया जा सकता। जहां भी कार्यकारण भाव में इष्टार्थ निश्चयनंय के कथन को सूचित करने का अभिप्राय रहता है वहां सर्वत्र "स्वयं" पद का अर्थ निश्चयनय से पर निरपेक्ष ही होता है, यह कहा जाता है और लिखा भी जाता है। अन्यथा प्रत्येक वस्तु स्वरूप से स्वयं ही उत्पाद-व्यय ध्रौव्यस्वरूप है, यह कथन वन ही नहीं सकता है। ___ समीक्षक को चाहिये था कि वह व्यक्तिगत अपना कुछ भी अभिप्राय रखकर अपने को जन भी घोपित करता रहे और समाज की दिशाभूल भी करता रहे; परन्तु अपने अभिप्राय से आगम को को भ्रष्ट करने का उपक्रम न करे तो यह उसके हित में ही होगा। कथन नं०६६ का समाधान - इस कथन में समयसार गाथा ११६ से १२० तक की गाथाओं का उल्लेख कर इन गाथाओं की अवतरणिका में "स्वयं" पद न देखकर जो यह लिखा था कि "उक्त गाथाओं द्वारा केवल वस्तु के परिणाम स्वभाव की सिद्धि करना ही प्राचार्य को अभीष्ट है, अपने आप परिणाम स्वभाव की सिद्धि करना नहीं। सो इस सम्बन्ध में हमारा कहना यह है कि यद्यपि उक्त गाथानों की अवतरणिका में "स्वयं" पद के न होने पर भी उनको प्रात्मख्याति टीका
SR No.010316
Book TitleJain Tattva Samiksha ka Samadhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages253
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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