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________________ १३१ सो समीक्षक के इस कथन को पढ़कर हमें बड़ा आश्चर्य हुआ, क्योंकि ग्रंथ का यही अभिप्राय होता तो वह अपने उक्त अभिप्राय को अवश्य ही लिपिबद्ध कर देता । कम से कम टीकाकार तो उसके द्वारा कहे गये इस अभिप्राय को अवश्य ही स्पष्ट कर देते । किन्तु प्रा० ,कुन्दकुन्द ने प्रवचनसार गाथा ९३ में जो उल्लेख किया है - "पज्जयमूढ़ा हि परसमया" तो यह वचन व्यवहार विमूढ़ जीवों को ध्यान में रखकर ही किया है, क्योंकि मात्र पर्याय को आत्मा मानना एकान्त से व्यवहारनय ही है । इसकी टीका में इसी बात को स्पष्ट करते हुए लिखा भी है - "यतो हि बहवोऽपि पर्यायमानमेवावलम्ब्य तत्वाप्रतिपत्तिलक्षणं मोहमुपगच्छतः परसमया भवन्ति ।" "क्योंकि बहुत से जीव पर्यायमात्र का ही अवलम्बन लेकर तत्व के अप्रतिपत्तिलक्षण मोह को प्राप्त होते हुए परसमय अर्थात् मिथ्याष्टि होते हैं ।" इससे स्पष्ट हो जाता है कि जहां पर भी प्रा० कुन्दकुन्द देव ने व्यवहारनय के विषय को उपस्थित कर निश्चयनय के कथन द्वारा असत् कहकर उसका निषेध किया है, वह मात्र तत्व की यथार्थता को बतलाने के अभिप्राय से ही किया है। आगे समीक्षक ने जो चार गतियों को उद्धृत कर व्यवहार को मिथ्या मानने का निषेध करके निश्चयनय के कथन द्वारा उसे सदोष ठहराया है, सो इसी से यह स्पष्ट हो जाता है कि उसने स्वयं ही अर्थात् अपने आप ही निश्चयनय की अपेक्षा व्यवहारनय का निषेध कर दिया है । खुलासा आवश्यकता पड़ने पर किया जायेगा तत्काल इतना लिखना पर्याप्त है । वैसे समीक्षक से बस इतना संकेत अवश्य करेंगे कि वह सद्भूत व्यवहार और असद्भूत व्यवहार को समझकर ही प्रकृत से लिखें यही तत्त्व विमर्श का मार्ग है। कथन नं० ८५ का समाधान - प्रवचनसार गाथा १६६ की पूरी टीका इस प्रकार है - ____ "यतो हि तुल्यक्षेत्रावगाढ़जीवपरिणाममात्रं बहिरंगसाधनमाश्रित्य जीवं परिरामयितारमन्तेरेगापि कर्मत्वपरिणमनशक्तियोगिनः पुद्गलस्कंधाः स्वयमेव कर्मभावेन परिणमन्ति । ततोऽवर्धार्यते न पुदगल-पिण्डानां कर्मत्वकर्ता पुरुषोऽस्ति ।" । १६६ ।। "कर्मरूप परिणत होने की शक्तिवाले पुद्गलस्कन्ध तुल्य (समान) क्षेत्रावगाह बहिरंग साधन रूप जीवके परिणाममात्र का आश्रय करके जीव उनको परिणमानेवाला न होने पर भी स्वयं ही कर्मरूप परिणमते हैं । इससे निश्चित होता है कि पुद्गल पिण्डों को कर्मरूप करनेवाला मात्मा नहीं है। - इस टीका में "परिणमयितारमन्तरेणापि" यह पद ध्यान देने योग्य है, क्योंकि जैसे जीव पुद्गल स्कन्धों को कर्मरूप नहीं परिणमाता है उसीप्रकार जीव की सहायता से भी पुद्गलस्कन्ध कर्मरूप नहीं परिणमते हैं।
SR No.010316
Book TitleJain Tattva Samiksha ka Samadhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages253
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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