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________________ १२८ यहां समीक्षक ने सामान्य से "व्यवहार" शब्द का प्रयोग करके यह स्पष्ट किया है कि प्रकृत में कौन सा व्यवहार यहां स्वीकार किया गया है - सद्भूतव्यवहार या असद्भूतव्यवहार । प्रागे स० पृ०५ में उसने जो यह लिखा है कि "यहां पूर्व पक्ष उसे वहां पर उस कार्यरूप परिणत न होने के आधार पर अभूतार्थ और संसारी प्रात्मा की उस कार्यरूप परिणति में सहायक होने के आधार पर भूतार्थ मानकर व्यवहारनय का विषय मानता है।" सो उसके इस कथन से तो यह मालूम पड़ता है कि उसके बाह्य निमित्त को या कर्म के उदयरूप आभ्यंतर निमित्त को प्रात्मा के संसाररूप कार्य में अभूतार्थ अर्थात् असद्भूत व्यवहारनय का विषय मान लिया है, जबकि आगम में एक द्रव्य की अपेक्षा उपादान-उपादेय भाव को या कर्तृकर्म भाव को सद्भूत व्यवहारनय का विषय माना गया है। इससे मालूम पड़ता है कि वह अपनी कल्पित नयप्ररूपणा को ही यथार्थ सिद्ध करना चाहता है।' यहां समीक्षक से कोई भी पूछ सकता है कि आपके उक्त मत के अनुसार कोई यह कहे कि संसार सम्बन्धी सभी कार्यों में आकाशफूल अयथार्थ कारण होकर भी उसकी सहायता को यदि भूतार्थ मानें तो क्या हानि है, क्योंकि आपके कथानुसार दोनों ही अयथार्थ कारण हैं । केवल उनकी सहायता भूतार्थ है तो इसका समीक्षक क्या उत्तर देगा? कुछ भी नहीं। ४. समीक्षक ने पृ० ४० में पालाप पद्धति के "अन्यत्र प्रसिद्धस्य धर्मस्य" इत्यादि वचन उद्धत कर अपने अभिप्रायानुसार उक्त वाक्य का अर्थ करके लिखा है कि "मृत्तिका के रूप में विद्यमान घट में जो धृतरूपता का आरोप किया जाता है उसमें यह आरोप इन आधारों पर किया जाता है कि एक तो घट का मूल्य धृतरूप होना संभव नहीं होने से. घृतरूपता का अभाव यहाँ विद्यमान है, दूसरे घट और घृत में संयोग सम्बन्धाश्रित आधार-प्राधेय भाव के निमित्त का सद्भाव है और तीसरे घट में घृत रखने या उसमें रे घृत निकालनेरूप प्रयोजन का सद्भाव यहां विद्यमान है, इस तरह मिट्टी के रूप में घट में उक्त तीनों आधारों पर आरोप सम्भव हो जाता है।" सो हमारा इस विषय में कहना यह है कि उक्त तीनों प्रकार से घृत में घट का समारोप भले ही हो जानो परन्तु ऐसा समारोप होने पर भी उक्त अयथार्थ निमित्त के आधार पर जव कि वह निमित्त में अयथार्थ कारणता के रहते हुए भी "घी का घड़ा" यह वचन घट के अस्तित्व में उसकी सहायता स्वीकार करता है । परन्तु उससे घट के निर्माण में कोई उपयोगिता दृष्टिगोचर नहीं होती। घो का घड़ा कहने से उल्टा यह प्रतीत होता है कि घी से भी घड़ा बनता है । सवाल तो सहायता का है कि वहाँ घी ने घट के अस्तित्व में क्या सहायता की । यदि कहा जाय कि मिट्टी के घड़े को लोक व्यवहार में घी का घड़ा कहा जाता है, तो यह लोक व्यवहार मात्र इसी बात को सूचित करने के लिये होता है कि उससे कोई अज्ञानी घी का घडा न समझे किन्तु मिट्टी का ही घड़ा समझे। सो इससे तो यही सिद्ध होता है कि ऐसा लोक व्यवहार परमार्थ नहीं है, किन्तु उसे परमार्थ कहना अज्ञानी का एक विकल्प मात्र है। अर्थात् अनादि रूढ़ लोक व्यवहार है। उसे आगम के अनुसार परमार्थभूत तो नहीं कहा जा सकता। आगम के अनुसार कहा जायेगा तो उपचरित ही कहा जायगा।
SR No.010316
Book TitleJain Tattva Samiksha ka Samadhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages253
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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