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________________ १२७ उसे यथार्थ घोपित करने का प्रयत्न कर रहा हैं अपितु अपने कथन को आगम सम्मत भी स्वीकार करने का असफल प्रयत्न कर रहा है । अब हम समीक्षक द्वारा पहले इस विषय में क्या स्वीकार किया गया है इसका निर्देश कर देना यहां इष्ट मानते हैं । १. स. पृ. ४ में दोनों ही पक्ष उक्त नैमित्तिक सम्बन्ध को व्यवहारनय का विषय मानते हैं। ___ यहां इतना संकेत कर देना हम आवश्यक समझते हैं कि अपने उक्त कथन में यद्यपि समीक्षक ने “व्यवहारनय" का उल्लेख तो किया है, परन्तु आगम में नैमित्तिक सम्बन्ध को उपचरित या अनुपचरित असद्भूत व्यवहारनय का विपय ही स्वीकार किया है, सामान्य व्यवहारनय का विपय नहीं, तो इसका भूलकर भी समीक्षक ने समीक्षा में कहीं उल्लेख नहीं किया। इसलिए उसके कथन के अनुसार यह भ्रम पैदा होता है कि यहां कौन से सद्भूत या असद्भूत व्यवहारनय का ग्रहण हुआ है। उसके कथन में यह भ्रम नं. १ है। २. उसी पृष्ठ में वह लिखता है कि जहां उत्तर पक्ष उस उपचार को सर्वथा अभूतार्थ मानता है वहाँ पूर्व पक्ष उसे कथंचित् अभूतार्थ और कथंचित् भूतार्थ मानता है।" इसे स्पष्ट करते हुए सं० पृ० ५ में लिखता है कि "वहां पूर्व पक्ष उसे वहाँ पर उस कार्यरूप में परिणत न होने के आधार पर अभूतार्थ और संसारी आत्मा की उस कार्यरूप परिणति में सहायक होने के आधार पर मृतार्थ मानता है ।" यहां यह ध्यान में रखने लायक बात है कि निमित्त कहो या सहायक, दोनों का अर्थ एक ही है । इसी अर्थ में बाह्य या आभ्यंतर साधन शब्द का भी आगम में प्रयोग हुअा है। तत्वार्थसूत्र अध्याय ५ के उपकार प्रकरण पर दृष्टिपात करने से यह भी ज्ञात होता है कि उक्त कथन की अपेक्षा निमित्त उपकारक भी कहलाता है । इस प्रकार जव निमित्त का अर्थ सहायक होता है ऐसी अवस्था में निमित्त को अयथार्थ कारण कहना और उसकी सहायता को भूतार्थ कहना कहां तक युक्तियुक्त हो सकता है, अर्थात् ऐसा परस्पर विरुद्ध कथन युक्तियुक्त तो है ही नहीं, आगमसम्मत भी नहीं माना जा सकता । हां वह यदि लोकव्यवहार को ही आगम मानना चाहता हो तो बात दूसरी है, फिर भी यहां हम यह स्पष्ट कर देना चाहते हैं कि निमित्त की निमित्तता आगम की दृष्टि में न कथंचित् अभूतार्थ होती है और न कथंचित भूतार्थ होती है, किन्तु वह उपचरित होती है । आगम में भी इसे इसी रूप में स्वीकार किया गया है। ३. निमित्त कारणता, अयथार्थ कारणता और उपचरित कर्तृत्व ये तीनों व्यवहारनय के विषय होकर एक हैं इसे स्पष्ट करते हुए वह स० पृ० ४ में लिखता है - "निमित्तकारणभूत उदयपर्यायविशिष्ट द्रव्यकर्म में स्वीकृत निमित्तकारणता, अयथार्थकारणता और उपचरित कर्तृत्व व्यवहार के विषय हैं।"
SR No.010316
Book TitleJain Tattva Samiksha ka Samadhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages253
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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