SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 167
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १२६ अपने उक्त कथन की पुष्टि में दूसरा उदाहरण समीक्षक ने घटकर्तृत्व को ध्यान में रखकर दिया है । सो इस उदाहरण में समझना यह है कि घटकर्तृत्व का कुंभकार में आरोप करके जो यह कहा जाता है कि "कुंभकार ने घट वनाया" यह आरोप असत् ही है, तो ऐसा असत् आरोप करने पर भी लाभ क्या निकला, सिवाय इसके की इससे निश्चयपक्षकी हानि ही हुई, क्योंकि निश्चय से तो प्रत्येक द्रव्य पर की सहायता के विना ही अपना कार्य करता है । जैसा कि समयसार गाथा ८६ से यह स्पष्ट हो जाता है । यथा - रिणच्छयणयस्स एवं पादा अप्पारणमेव हि करेदि । वेदयदि पुरणोतं चेव जाण अत्ता दु अत्तारणं ॥३॥ अर्थ - निश्चयनय का ऐसा मत है कि आत्मा अपने को ही करता है और फिर आत्मा अपने को ही भोगता है। यदि समीक्षक कहे कि हम जो कुछ भी लिख रहे हैं यह निश्चयनय की अपेक्षा नहीं लिख रहे हैं, हम व्यवहारनय की अपेक्षा लिख रहे हैं, सो भाई! यहां निमित्त-नैमित्तिक भाव में तो असद्भूत व्यवहारनय ही प्रयोजनीय माना गया है और इस नय की विवक्षा में जो कोई भी निमित्त में अयथार्थ कारणता स्वीकार करता है और ऐसे कारण से पर के कार्य में सहायता-भूतार्थ स्वीकार करता है, सो ये दोनों ही बातें असद्भूत व्यवहारनय के विषय हैं, इस को न जानने मात्र का फल जान पड़ता है, क्योंकि असद्भूत व्यवहारनय से निमित्त में कारणता भी स्वीकार की गई है और उससे कार्य की उत्पत्ति भी स्वीकार की गई है, पर वह उपचरित रूप में ही स्वीकार की गई है । इसलिये निष्कर्परूप में यह समझना चाहिये कि प्रत्येक द्रव्य नित्यता के साथ स्वयं परिणाम स्वभावी होने से अपना कार्य स्वयं ही करता है - यह यथार्थ है। कार्य के होने में जो निमित्तता स्वीकार की गई है वह असद्भूत व्यवहारनय से ही स्वीकार की गई है, परमार्थ से नहीं। अत: निश्चयनय का कथन सम्यक् एकान्तरूप होने पर भी इससे अनेकान्त की.ही प्रतिष्ठा होती है। जव कि असद्भूत व्यवहारनय के कथन के अनुसार, पर की सहायता को यथार्थ मानने पर परमार्थ से वह अनेकान्त का घातक ही सिद्ध होता है। समीक्षक ने इस कथन में जितने भी आगम वचन उद्धत किये हैं उन सवसे भी हमारे उक्त आशय की ही पुष्टि होती है। इसी सिलसिले में उसने जो समयसार गाथा ८१ का अर्थ लिखा है उसके ऐसा अर्थ करने से उल्टा भ्रम ही उत्पन्न होता है। कथन नं०.८० में उसने अन्य जितना कुछ लिखा है वह उसका पुनः पुनः दुहराना मात्र होने से उसका अलग से विशेष विचार करना उपयुक्त प्रतीत नहीं होता। - कथन नं०८१ का समाधान.:-- इस कथन में समीक्षक ने जो "स्वयं" पद की चर्चा करके अपना अभिप्राय व्यक्त किया है, इससे मालूम पड़ता है कि वह निश्चयनय के कथन को विल्कुल ही उड़ा देना चाहता है, क्योंकि वह यह तो जानता ही है कि प्रत्येक द्रव्य नित्य होकर भी परिणामस्वभावी होता है, इसलिये अपने परिणाम स्वभाव के अनुसार प्रत्येक द्रव्य स्वयं अर्थात् पर निरपेक्ष
SR No.010316
Book TitleJain Tattva Samiksha ka Samadhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages253
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy